मराठा और मुगल संघर्ष
औरंगजेब ने 1686ई. बीजापुर जीता तथा उसके बाद 1687 ई. में गोलकुण्डा को विजित किया|उसका बागी पुत्र पहले ही फारस भाग चुका था |इन सब से मुक्त होने के पश्चात् औरंगजेब ने शम्भाजी की ओर ध्यान केन्द्रित किया. 1689 ई. में शम्भाजी परिवार सहित पकड़ा गया और उसे मार दिया गया. अब सम्पूर्ण मराठा क्षेत्र पर औरंगजेब का अधिकार हो गया. शम्भाजी की इस अपमानजनक मृत्यु से मराठे जाग्रत हो गए. अब वे संगठित हुए और इसी समय राजाराम के नेतृत्व में मराठे अपने देश की स्वतन्त्रता के लिए कटिबद्ध हो गये।
यहीं से मराठों का स्वतन्त्रता संग्राम आरम्भ हुआ जो उस समय (1707 ई०) तक चलता रहा जब तब शाहू को मराठा-छत्रपति नहीं स्वीकार कर लिया गया। यद्यपि शाहू को राजा की उपाधि और मनसब भी दिया गया लेकिन वह 1707 ई० अर्थात् औरंगजेब की मृत्यु तक वस्तुत: मुगलों के अधीन कैदी ही बना रहा।
मराठा स्वतन्त्रता संग्राम
इस प्रकार 1689 के अंत तक मराठा राज्य की स्थिति पूरी तरह बदल गई थी । राजाराम नाममात्र का राजा रह गया था और वह भी अपने मराठा गृह प्रदेश से बहुत दूर तमिलनाडु में रह रहा था |
लेकिन राजाराम के नेतृत्व में अनेक मराठा सरदार यथा संताजी घोरपदे' एवं धानाजी जादव आदि तथा कुशल राजनीतिज्ञ प्रहलाद नीराजी तथा रामचन्द्र पंत संगठित हुए. मराठों का लगभग 20 वर्ष तक मुगलों से संघर्ष हुआ. औरंगजेब ने मराठों के दमन के अनेक प्रयास किए, किन्तु वह असफल रहा, क्योंकि राजाराम ने मराठा सरदारों को सेना एकत्र करने, मुगलों से युद्ध करने तथा युद्ध में प्राप्त भूमि एवं सम्पत्ति पर अधिकार की स्वतन्त्रता प्रदान कर दी, जिसमें मराठा सरदार अत्यंत ही उत्साहित हुए और उन्होंने मुगलों के विरुद्ध संघर्ष छेड़ दिया. वे मुगल साम्राज्य में लूटपाट करने लगे. मराठों की इस लूटपाट की नीति का औरंगजेब सामना नहीं कर सका, क्योंकि मुगल सेना जब तक युद्ध के लिए तैयार होती थी तब तक मराठे रसद आदि लूट लिया करते थे. परास्त होने पर वे दूसरे प्रदेशों में जाकर लूटपाट करते थे. इस प्रकार मुगल सेना उनका पीछा करती रहती थी और वे उन्हें चकमा देते रहते थे.
विभिन्न मराठा सरदारों द्वारा स्वतंत्र रूप से सैनिक अभियान करने और राजाराम द्वारा उन्हें जागीरें प्रदान करने के फलस्वरूप, मराठा सरदारों की स्वायत्त सत्ता का उदय हुआ, जिसके परिणामस्वरूप अन्ततः मराठा मण्डल या राज्यसंघ का उदय हुआ|
उन्होंने1690 के मध्य में सतारा के निकट मुगल सेनानायक श्री सखाँ को उसके परिवार, अश्वारोहियों और उसकी सेना के संपूर्ण साज-सामान के साथ बन्दी बना लिया ।
1692 में उन्होंने पन्हाला पर अधिकार कर लिया ।
1694-95 के दौरान छोटे -मोटे युद्धों के कारण मुगल सेना की शक्ति और मनोबल क्षीण-प्राय हो गई ।
सन्ताजी ने 1695 के अन्त में दो वरिष्ठ मुगल सेनानायकों कासिम खाँ और हिम्मत खाँ को पराजित करके उनकी हत्या कर डाली ।
परन्तु 1696-97 में सन्ताजी और धनाजी के मध्य सेनापति के उच्च पद के लिए पारस्परिक प्रतिद्वन्द्विता के कारण मराठों में गृह-युद्ध की स्थति आ गई|इस कारणवश मराठों का पक्ष कमजोर हो गया |
1698 में स्वयं औरंगजेब ने जब सुदूर दक्षिण में मराठों की राजधानी जिंजी पर अधिकार किया जिजी पर अधिकार कर लेने से राजाराम जो जिंजी से भागकर महाराष्ट्र में विशालगढ़ में शरण लेना पड़ी ।
जब वहाँ मुगल आक्रमण हुआ तो वह सतारा भाग गया. इस प्रकार मराठे कहीं नहीं थे और सर्वत्र थे. जनता की सहानुभूति भी उनके साथ थी. लूटपाट करते हुए राजाराम ने मुगल शक्ति को अपार क्षति पहुँचाई.
1699 में उसने खानदेश और बरार के रास्ते से मुगलो पर आक्रमण की व्यापक योजनाएँ बनाई और इस अभियानके लिए सतारा, जो जिंजी के पतनोपरान्त 1699 से मराठों की राजधानी बना से आगे बढ़ा, पर इसके शीघ्र बाद ही मार्च 1700 में राजाराम की मृत्यु हो गई ।
1700 ई० में अपनी मृत्यु तक राजाराम ने स्वतन्त्रता संघर्ष जारी रखा।
1700 ई. में राजाराम की मृत्यु के पश्चात् उसकी पत्नी ताराबाई ने अपने चार वर्षीय पुत्र शिवाजी द्वितीय को सिंहासन पर आसीन किया और मुगलों के विरुद्ध संघर्ष जारी रखा. औरंगजेब मराठों की युद्ध नीति से बहुत परेशान हो गया| अतः उसने मराठों से संधि का प्रस्ताव रखा, परन्तु कोई समझौता नहीं हो सका. इसी बीच मार्च 1707 ई. में औरंगजेब की मृत्यु हो गई.
औरंगज़ेब की मृत्यु के तीन माह के बाद उसका दूसरा बेटा आजम शाह, बहादुर शाह प्रथम के नाम से सिंहासनारुढ़ हुआ| शम्भाजी का पुत्र शाहू जो (जन्म 18 मई, 1682) 3 नवम्बर, 1689 से ही मुगलों की कैद में था । औरंगजेब की मृत्यु के लगभग तीन महीने बाद ही आजम शाह ने 8 मई, 1707 को उस को रिहा कर दिया । शाहू को मराठों के राजा के रूप में मान्यता प्रदान की गई और मराठा स्वराज तथा मुगलों के दक्कनी से चौथ और सरदेशमुखी की वसूली के उसके अधिकार को भी मान्यता दी गई|
मुगलों की प्रभुसत्ता को इस अर्थ में सुरक्षित रखा गया कि शाहू मुगल साम्राज्य के अधीनस्थ शासक के रूप में शासन करेंगे । वस्तुतः मुगलों का उद्देश्य दक्कन में लंबे समय से चल रहे युद्ध को समाप्त करना या मराठा शिविर में आपसी फूट डालना था। मुगलों के लिए दोनों ही स्थितियों लाभप्रद थी और वे निराश नहीं हुए |
इस तरह जब शाहू को मराठा-छत्रपति स्वीकार कर लिया गया।और मुगल -मराठा संघर्ष या मराठा स्वतन्त्रता संग्राम समाप्त हुआ|
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