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शिवाजी और उनका मराठा साम्राज्य का उत्थान

 शिवाजी  और उनका मराठा साम्राज्य का उत्थान



मुगल साम्राज्य का गौरव सत्रहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में जब अपने चरमोत्कर्ष पर था, उस वक्त शिवाजी के नेतृत्व में मराठों के उत्थान  से उसे गहरा आघात पहुँचा । तथा मुगल को सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में अपने अधिकांश सैन्य संसाधनों को मराठों के विरुद्ध लगाना पड़ा, यहाँ तक कि  औरंगजेब को भी अपने शासन के अंतिम पच्चीस वर्ष दक्कन में मराठों के साथ भीषण संघर्ष में बिताने पड़े। लगभग पचास वर्षों तक मराठों के विरुद्ध चलते रहने वाला यह संघर्ष अन्ततः मुगल साम्राज्य के पतन के कारणों में से एक कारण सिद्ध हुआ ।मुगल शासक अकबर से लेकर औरंगजेब तक मुगलों की चार महान पीढ़ियों ने साम्राज्य के अपने अधिकांश संसाधनों को दक्षिण में अपना आधिपत्य स्थापित करने में लगा दिया|


मराठों के इतिहास को दो प्रमुख चरणों में विभक्त किया जा सकता है-

  1. 17वीं सदी के उत्तरार्द्ध से लेकर औरंगजेब की मृत्यु तक प्रारम्भिक चरण था । जिसमें शिवाजी, शम्भाजी, राजाराम तथा ताराबाई का शासन काल आता है, 

  2.  दूसरा उत्तरवर्ती मुगल काल था। जिसमें वास्तविक शासक पेशवा बन गए और मराठा साम्राज्य पेशवाओं के नेतृत्व में मराठा सरदारों का संघ बन गया । और मराठा  छत्रपति पूरी तरह पृष्ठभूमि में चले गए | अब वे केवल नाममात्र के ही छत्रपति रह गए । इस काल में मराठों का प्रभाव सुदूर दक्षिण से भारत के उत्तर-पश्चिम सीमान्त तक फैलने लगा और वे मुगलों के वास्तविक उत्तराधिकारी होने का सपना देखने लगे । इस तरह मराठों का आधी शताब्दी में ही मुगलों और अंग्रेजों के भारत में उदय के बीच ,सेतु के रूप में उदय हुआ।


17वीं शताब्दी में मुगल साम्राज्य के पतन की प्रक्रिया शुरू होने के साथ ही देश में स्वतन्त्र राज्यों की स्थापना का सिलसिला आरम्भ हुआ उन स्वतन्त्र राज्यों  में राजनीतिक दृष्टि से सर्वाधिक शक्तिशाली राज्य मराठों का था। 


मराठों का राजनीतिक उदय मुगल सम्राट जहाँगीर के काल से आरम्भ होता है|और औरंगजेब के शासनकाल में भारत में मराठा शक्ति का उत्कर्ष हुआ| यद्यपि औरंगजेब ने मराठा शक्ति के दमन की पूरी कोशिश की, लेकिन मराठा शक्ति क्रमशः उत्कर्षित होती चली गई मराठाओं के इस उत्कर्ष में किसी एक व्यक्ति का योगदान नहीं था, वरन् अनेक मराठाओं का योगदान था. और 1761 ई. में पानीपत के तृतीय युद्ध में उनकी पराजय तक वे अजेय बने रहे।


मराठों का मूल प्रदेश पश्चिमी महाराष्ट्र और कोंकण था | जो लगभग मुस्लिम राजनीतिक प्रभाव से मुक्त रहा।और इस क्षेत्र पर बीजापुर तथा गोलकुण्डा के बहमनी सुल्तानों का अधिकार भी नाममात्र का ही था। शिवाजी के उत्थान से पूर्व भी मराठों को प्रशासनिक और सैनिक क्षेत्रों में विशेष स्थान प्राप्त था। बहुत से मराठा सिपहसालार तथा मनसबदार के रूप में बहमनी राज्य और उसके उत्तराधिकारी बीजापुर और अहमदनगर राज्य में नौकरी करते थे। 

अहमदनगर के मलिक अम्बर ने मराठों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित किये तथा युद्ध और प्रशासन दोनों में उनकी सर्वोत्तम प्रतिभा और सहयोग का उपयोग किया।



 ग्रान्ट डफ के अनुसार सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में मराठों का उदय 'आकस्मिक अग्निकाण्ड' की भाँति हुआ।

 पर भारत में मुगल सत्ता को गंभीर चुनौती देने वाले मराठों के उत्थान में भौगोलिक, राजनीतिक, सामाजिक-धार्मिक तथा सांस्कृतिक प्रभावों और दशाओं के साथ-साथ अनेक विविध कारकों की भी समान भूमिका रही है।


मराठों के उत्थान के लिए उत्तरदायी कारक



  • मराठी साहित्य और भाषा ने  मराठों को एक संगठित शक्ति बनाने का कार्य किया।

  • भक्ति आंदोलन के प्रसार से मराठों में एकता की भावना का संचार हुआ|

  • दसबोध नामक पुस्तक के लेखक और शिवाजी के पितृतुल्य गुरु रामदास समर्थ (1608-1682) या समर्थ गुरु रामदास ने कर्म दर्शन का उपदेश दिया और उन्होंने मराठों को संगठित करने और महाराष्ट्र धर्म का प्रचार करने को प्रोत्साहित किया ।

  •  संतों के महान उपदेशों ने मराठों में राष्ट्रीय चेतना को जाग्रत और सुदृढ़ करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई तथा उनके राजनीतिक क्रिया-कलापों के लिए एक नूतन आध्यात्मिक पृष्ठभूमि प्रदान की।

  • औरंगजेब की हिन्दू विरोधी नीतियों और उनके परिणामस्वरूप हिन्दू जागरण|

  • मराठों के जीवन का प्रत्येक पहलू खानदेश का पतन, अहमदनगर का क्रमशः अवसान और दक्षिण में मुगलों के शासन की स्थापना से प्रभावित हुआ जिससे शिवाजी तथा उनके उत्तराधिकारियों के नेतृत्व में मराठों में "एक राष्ट्र' की भावना जाग्रत हुई ।

  • अनुपजाऊ और दुर्गम प्रदेश,आबादी कम, कृषि करना अपेक्षाकृत कठिन, राज्य की ऊबड़-खाबड़ पहाड़ी भौगोलिकता के कारण ही मराठा आत्मनिर्भर, परिश्रमी ,वीर और लड़ाकू योद्धा बन सके।

  •  इसके अलावा यह भौगोलिक स्थिति व्यापार और वाणिज्य के लिए भी बाधक थी|


  

शिवाजी (1647-80ई.)

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शिवाजी का जन्म 20 अप्रैल 1627 ई० को पूना के निकट  शिवनेर के किले में हुआ था। वह भोंसले वंश के थे और उनके पितामह मालोजी अहमदनगर के निज़ामशाही राज्य में एक प्रतिष्ठित पद पर थे। मालोजी के ज्येष्ठ पुत्र और शिवाजी के पिता शाहजी का विवाह एक निज़ामशाही सरदार और देवगिरी के यादवों के वंशज लाकूजी जाधवराव की पुत्री जीजाबाई से हुआ था ।शिवाजी के व्यक्तित्व पर सर्वाधिक प्रभाव उनकी माता जीजाबाई तथा संरक्षक एवं शिक्षक दादा कोंणदेव का पड़ा। इनके गुरु का नाम समर्थ रामदास था।

 1636 ई. में शाहजी ने मुगलों के विरुद्ध अपने अंतिम संघर्ष में अहमदनगर की ओर से युद्ध किया । इसके बाद उन्होंने बीजापुर में नौकरी कर ली और फिर उन्हें अपने पुत्र शिवाजी और पत्नी जीजाबाई सहित पूना की अपनी पैतृक जागीर की देखभाल का दायित्व आदिलशाही राज्य के एक पूर्व अधिकारी और अपने विश्वासपात्र मित्र दादाजी कोंडदेव को सौंपकर कर्नाटक जाना पड़ा और फिर जीवनपर्यन्त वे कर्नाटक में ही बने रहे । लगभग 1637 या 1638 में दादाजी कोंडदेव शिवाजी के संरक्षक बने और मृत्युपर्यन्त (1647) जागीर का वास्तविक प्रशासन देखते रहे ।


शिवाजी का आरम्भिक जीवन:-


उन्होंने अपने जीवन के प्रधान नौ वर्ष शिवनेर बैजपुर, शिवपुर आदि में व्यतीत किए. वे पढ़े-लिखे नहीं थे, किन्तु उन्होंने सैनिक शिक्षा ग्रहण की तथा उसमें महारत हासिल किया और बड़े होकर मुगल शक्ति के विरुद्ध संघर्ष किया. 1647 ई. में उनके संरक्षक दादाजी कॉडदेव की मृत्यु हो गई|दादाजी कोंडदेव की मृत्यु तक शिवाजी दायित्व वहन करने योग्य हो गए थे ।

 और वह पूर्ण स्वतंत्र हो गए. उन्होंने अपनी जागीर का विस्तार करना प्रारम्भ किया तथा अपने प्रयासों से मराठा शक्ति संगठित करना आरम्भ किया.


आरम्भ में शिवाजी का उद्देश्य एक स्वतन्त्रराज्य की स्थापना करना था। 

उन्होने 'हिन्दू पद पादशाही' अंगीकार किया| गाय और ब्राह्मणों की रक्षा का व्रत लिया और हिन्दुत्व-धर्मोद्धारक' की उपाधि धारण की। शिवाजी में हिन्दू धर्म की रक्षा की भावना थी। परन्तु उनका मुख्य उद्देश्य राजनीतिक था। उसका मूल उद्देश्य मराठों की बिखरी हुई शक्ति को एकत्रित करके महाराष्ट्र (दक्षिण भारत) में एक स्वतन्त्र राज्य की स्थापना करना था। ।





शिवाजी के आरंभिक सैन्य अभियान:-


 शाहजी द्वारा दादाजी को देखभाल के लिए सौंपी गई जागीर मावल प्रदेश तक फैल गई थी ।

  •  शिवाजी के प्रारंभिक सैनिक अभियान बीजापुर के आदिलशाही राज्य के विरुद्ध शुरू हुए ।सर्वप्रथम शिवाजी ने 1643 ई० में बीजापुर के सिंहगढ़ के किले पर अधिकार किया।

  • तत्पश्चात् 1646 ई० में उन्होंने तोरण पर अधिकार कर लिया

  •  वे अभी मुगलों के साथ शांति बनाए रखने चाहते थे क्योंकि दो-दो मोर्चे पर एकसाथ युद्ध करने की सामर्थ्य उनमें नहीं थी। 

  • 1653 में उन्होंने कल्याण पर अधिकार कर लिया. जो पश्चिमी तट पर आदिलशाही राज्य का एक महत्त्वपूर्ण नगर और प्रमुख व्यापारिक केन्द्र था।

  • 1656 ई० तक शिवाजी ने चाकन, पुरन्दर, बारामती, सूपा, तिकोना, लोहगढ़ आदि विभिन्न किलों पर अधिकार कर लिया।

  •  1656 में शिवाजी की महत्वपूर्ण विजय जावली की थी|सतारा के उत्तर-पश्चिम में स्थित जावली के किले पर  एक मराठा सरदार चन्द्रराव मोरे के अधिकार में था कूटनीति व सैनिक बल का सहारा लेकर शिवाजी ने लगभग 1656 में अपना अधिकार कर लिया

  •  जावली को विजित करने के पश्चात् शिवाजी ने अप्रैल 1656 ई० में उसने रायगढ़ के किले पर कब्जा कर लिया।  शिवाजी ने कोंकण प्रदेश पर आक्रमण कर दिया और शीघ्र ही उसने भिवण्डी, कल्याण, चौलतले, राचमन्ची, लोहगढ़, कंगोरी, तुग तिकोना आदि पर अपना अधिकार कर लिया. 1657 ई. के अत तक लगभग सम्पूर्ण कोंकण प्रदेश पर शिवाजी का अधिकार हो गया |

  • किलों में कोंडाना किला सर्वाधिक महत्वपूर्ण था। शिवाजी ने इस किले का नाम सिंहगढ़ रखा। 

  • 1657 ई० में शिवाजी का पहली बार मुकाबला मुगलों से हुआ, जब वह बीजापुर की तरफ से मुगलों से लड़ा। इसी समय शिवाजी ने जुन्नार को लूटा। कुछ समय पश्चात मुगलों के उत्तराधिकार युद्ध का लाभ उठाकर उसने कोंकण पर भी विजय प्राप्त की।

  •  1657 से 1660 तक शिवाजी ने आदिलशाही राज्यों पर कई बार आक्रमण किए और उन्हें लूटा|


  • शिवाजी का अफजल खाँ से संघर्ष


शिवाजी के इस विस्तारवादी नीति से बीजापुर शासक सशंकित हो उठा,यह देखते हुए आदिलशाह की विधवा रानी ने शिवाजी को जीवित या मुर्दा पकड़ने और उनकी शक्ति को पूरी तरह कुचलने की दिशा में ठोस उपाय करने का निश्चय किया । उसने शिवाजी की शक्ति को दबाने तथा उसे कैद करने के लिए 1660 ई० में अपने प्रथम श्रेणी के अमीर और सेनापति अफजल खाँ के नेतृत्व में एक सैनिक टुकड़ी भेजी|अफज़ल खाँ ने शिवाजी को क्षमा करने और राज्यक्षेत्र देने का वचन देते हुए उनसे भेंट करने का प्रस्ताव किया । लेकिन वास्तव में उसकी योजना शिवाजी को गिरफ्तार करने की थी। ब्राह्मण दूत कृष्ण जीभाष्कर ने अफजल खान का वास्तविक उद्देश्य शिवाजी को बता दिया। शिवाजी और अफजल खाँ की मुलाकात प्रतापगढ़ के दक्षिण में स्थित पार नामक स्थान पर हुई,दी।इस प्रस्तावित भेंट में जब अफजल खाँ ने शिवाजी को गले लगाते हुए उन पर तलवार से वार किया तो शिवाजी ने तुरन्त ही उसे अपने बघनखों से मार डाला ।

 इस तरह शिवाजी ने 2 नवम्बर, 1659 ई० में उसकी हत्या कर दी|


  • शिवाजी का शाइस्ता खाँ से संघर्ष:-


इसी दौरान औरंगजेब ने दक्षिण में शिवाजी का दमन करने के लिए अपने मामा शाइस्ता खाँ को  दक्षिण का गवर्नर नियुक्त किया। शाइस्ता खाँ ने बीजापुर राज से मिलकर शिवाजी को समाप्त करने की योजना बनाई 1660 के प्रारम्भ में शिवाजी के विरुद्ध मुगलों ने उत्तर से तथा बीजापुरियों ने दक्षिण से संयुक्त आक्रमण किए । तीन वर्षों तक (1660-63) चारों ओर से शिवाजी पर इतने आक्रमण किए गए कि वे बेघर-घुमक्कड़ बन गए।  प्रारम्भ में शाइस्ता खाँ ने शिवाजी के कई किलों पर अधिकार कर लिया,ऐसे संकट काल में उन्होंने 15 अप्रैल 1663 ई० में  रात्रि में चुपके से पूना में प्रवेश कर शाइस्ता खाँ के महल पर कड़े पहरे के बीच रात में आक्रमण कर दिया। इस आकस्मिक हमले में मुगल सेना में भगदड़ मच गई. इस कार्यवाही में शाइस्ता खाँ का अंगूठा कट जाने से वह घायल हो गया और उसका पत्र मारा गया।शाइस्ता खाँ इस अचानक आक्रमण में घबराकर भाग खड़ा हुआ। इस आक्रमण के कारण दक्कन में मुगल सेना को काफी क्षति पहुंची व मुगलों की प्रतिष्ठा को ठेस लगी|तथा शिवाजी की प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई। 


  • शिवाजी की सूरत की लूट


शाइस्ता खाँ को परास्त करने के पश्चात् शिवाजी के उत्साह में और अधिक वृद्धि हो गई. अपनी आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ बनाने के उद्देश्य से शिवाजी ने सूरत, जोकि आर्थिक स्थिति से सम्पन्न था, पर 1664 ई. में धावा बोल दिया. इस धावे शिवाजी ने 10 करोड़ रुपए से भी अधिक की लूट की। यह मुगलों का एक महत्वपूर्ण किला था। उसने चार दिन तक लगातार नगर को लूटा। 



  • जयसिंह व शिवाजी 


शाइस्ता खाँ के असफल होने व सूरत की लूट से औरंगजेब अत्यंत क्रोधित हुआ. अतः उसने आमेर के मिर्जा राजा जयसिंह को शिवाजी के विरुद्ध दक्षिण भेजा. वह बड़ा चतुर कूटनीतिज्ञ या उसने समझ लिया कि बीजापुर को जीतने के लिए शिवाजी से मैत्री करना आवश्यक है। अत: पुरन्दर के किले पर मुगलों की विजय और रायगड़ के घेराबन्दी के बावजूद उसने शिवाजी से पुरन्दर की सन्धि की।और शिवाजी को मुगल दरबार में जाने के लिए तैयार कर लिया.


  • पुरन्दर की सन्धि (जून 1665) :-


जून 1665 ई० पुरन्दर की सन्धि के अनुसार:-


  1.  शिवाजी को चार लाख हूण वार्षिक आय वाले 23 किले मुगलों में सौपने पड़े,अब उसके पास सिर्फ बारह किले थे। 

  2.  मुगलों ने शिवाजी के पुत्र शम्भा जी को पंचहजारी एवं उचित जागीर देना स्वीकार किया।

  3. शिवाजी ने बीजापुर के विरुद्ध मुगलों को सैनिक सहायता देने का वायदा किया।


यह सन्धि राजा जयसिंह की व्यक्तिगत विजय थी। वह न केवल शक्ति शाली शत्रु पर काबू पाने में सफल रहा अपितु उसने बीजापुर राज्य के विरुद्ध सहयोग भी प्राप्त कर लिया था। औरंगजेब ने इस सन्धि को स्वीकार कर शिवाजी के लिए फरमान और खिलअत भेंट किया |



  • शिवाजी और आगरा की घटना



1666 ई० में शिवाजी जयसिंह के आश्वासन पर औरंगजेब से मिलने आगरा आये|

शिवाजी जब मुगल दरबार में पहुँचे तो पर उचित सम्मान न मिलने पर दरबार से उठकर चले गये| औरंगजेब ने उन्हें तथा उनके पुत्र शम्भाजी को जेल में डाल दिया गया | उन्हें कैद कर जयपुर भवन (आगरा) में रखा। परन्तु चतुराई से किसी तरह भेष बदलकर शिवाजी आगरे के कैद से फरार हो गये। और मथुरा होते हुए पुनः 1666 ई. में महाराष्ट्र पहुँचे|


कुछ दिन बाद शिवाजी ने औरंगजेब के पास पत्र भेजा कि यदि वह (शिवाजी को) क्षमा कर दे तो वह अपने पुत्र शम्भा जी को युवराज मुअज्जम की सेवा में भेज सकता है।


औरंगजेब ने शिवा जी के इस समझौते को स्वीकार कर शिवाजी को राजा की उपाधि प्रदान की तथा उसके पुत्र शम्भा जी को बरार में एक मनसब और जागीर दी। 1666 में दक्कन वापस आने के उपरान्त शिवाजी ने कोई आक्रामक कार्यवाही नहीं की बल्कि एक-दो वर्ष अपने संसाधनों को पुनः व्यवस्थित करने में लगाए । दूसरी और मुगल वाइसराय मुअज्जम ने भी दक्कन में सुलहकारी नीति अपनाई । तीन वर्ष (1667-70) तक शांति बनी रही किन्तु औरंगजेब द्वारा बरार की जागीर के एक हिस्से पर आक्रमण करने से स्थिति फिर तनावग्रस्त हो गई ।


1670 ई० में शिवाजी का मुगलों से पुन: युद्ध आरम्भ हो गया। पुरन्दर की  सन्धि द्वारा खोये गये अपने अनेक किलों को शिवाजी ने पुन: जीत लिया।


  •   1670 में शिवाजी ने  दूसरी बार तीव्र गति से सूरत पर पुनः आक्रमण किया और लूटा तथा मुगलों से चौथ की मांग की। और आदिलशाही प्रदेशों पर अपने आक्रमण पुनः प्रारम्भ कर दिए ।



शिवाजी का राज्याभिषेक


1674 में उन्होंने अपनी राजधानी रायगढ़ में अपने राज्याभिषेक की वैदिक रीति से व्यवस्था की ।

14 जून 1674 ई. में रायगढ़ के किले में शिवाजी ने बड़ी धूमधाम से काशी के प्रसिद्ध विद्वान गंगाभट्ट से अपना राज्याभिषेक  करवाया तथा 'छत्रपति' की उपाधि धारण की।  तथा भगवा ध्वज को अपना झण्डा बनाया,इस अवसर पर शिवाजी ने सम्प्रभुता सम्पन्न राष्ट्र के निर्माण की घोषणा की । उन्होंने स्वयं अपना नया सम्वत् चलाया। यह उनके राजतिलक से प्रारम्भ  होता है।  

इस समय उनका वास्तविक अधिकार-क्षेत्र लम्बाई में लगभग 200 मील और चौड़ाई में इससे कुछ कम ही होगा । और संपूर्ण मराठा राज्य  अभी उनके नियंत्रण में पूरी तरह नहीं आया था । एक तरफ जंजीरा के सिद्दी पुर्तगाली पश्चिमी तट पर निरन्तर उनके शत्रु बने हुए थे  ।  तो दूसरी ओर मुगलों का उत्तर की ओर से दबाव बढ़ रहा था । वहीं उनके भाई व्यंकोजी ने दक्षिण में अपना विजय बिगुल बजाते हुए तंजावूर में  राज्याभिषेक का आयोजन किया और अपनी प्रभुसत्ता की घोषणा की।  


  • शिवाजी अंतिम सैनिक अभियान :-


उपरोक्त कारणों से शिवाजी के लिए अपने अधिकार-क्षेत्र का विस्तार करना जरुरी हो गया । और वह  1677 में अपने सर्वाधिक लम्बे और अंतिम  कर्नाटक अभियान  पर निकल पड़े ।

  •  इस अभियान का मुख्य उद्देश्य बीजापुर के आदिलशाही राज्य पर अधिकार करना था। 

  • इसके लिए उन्होंने गोलकुण्डा के दो ब्राह्मण मंत्रियों-मदन्ना तथा अकन्ना के माध्यम से गोलकुण्डा के सुल्तान के साथ एक गुप्त संधि की । मराठा तथा गोलकुण्डा के मध्य हुई संधि में यह निश्चय किया गया कि आदिलशाही राज्य के विजित क्षेत्रों को दो भागों में विभक्त किया जाएगा और दोनों में से किसी एक पर भी मुगलों के आक्रमण की दशा में परस्पर सहयोग करेंगे। 

  • इस अभियान में शिवाजी ने जिंजी, मदुराई, बेल्लूर आदि तथा कर्नाटक और तमिलनाडु के लगभग 100 किलों को जीत लिया ।

  • जिंजी को उन्होंने अपने इस भाग (दक्षिण भाग) की राजधानी बनाई।

  •  उन्होंने अपने भाई तथा तंजावूर के शासक व्यंकोजी से भी सम्बन्धों में सुधार किया । 

  • समुद्रतटीय प्रदेश तक अपने राज्य का विस्तार करने के लिए उन्होंने गोआ के दक्षिण में कुछ प्रदेशों पर अधिकार कर लिया| शिवाजी का संघर्ष जंजीरा टापू के अधिपति अबीसीनाई सीदियो से भी हुआ। सीदियों पर अधिकार करने के लिए उसने नौ सेना का भी निर्माण किया था। परन्तु वह पुर्तगालियों से गोआ तथा सीदियों से चौल और जंजीरा को न छीन सके।

  • सीदी पहले अहमदनगर के आधिपत्य को मानते थे परन्तु 1636 के पश्चात् वे बीजापुर की अधीनता में आ गये।

  • शिवाजी के लिए जंजीरा को जीतना अपने कोंकण प्रदेश की रक्षा के लिए आवश्यक था। 1669 ई० में शिवाजी ने दरिया-सारंग के नेतृत्व में अपने जल बेड़े को जंजीरा पर आक्रमण करने के लिए भेजा। 

  • तथा अबीसीनियाई शासक सिद्दी से जंजीरा द्वीप (बम्बई से 20 किलोमीटर दक्षिण की ओर) जीत लिया । 

  • कर्नाटक का सैनिक अभियान शिवाजी की अंतिम महान उपलब्धि सिद्ध हुई



 अपने अंतिम समय में शिवाजी ने एक बार फिर बीजापुर को मुगलों के विरुद्ध सहायता दी।


शिवाजी के जीवन के अंतिम दो वर्ष दुखद थे।उनका पुत्र शम्भाजी अपनी पत्नी येसूबाई के साथ  दिसम्बर 1678 में निकल भागा और दक्कन में मुगल सूबेदार दिलेर खाँ से जाकर  मिल गया।और लगभग एक वर्ष बाद  वह मराठा राज्य में वापस लौट आया। इस दौरान मुगलों ने मराठों पर काफी दबाव बनाया ।शिवाजी के स्वास्थ्य पर इन सब घटनाओं का प्रतिकूल प्रभाव पड़ा । जिससे वह फिर कभी उबर नहीं पाए | और अन्ततः 4 अप्रैल, 1680. को उनकी मृत्यु हो गई ।



 इतिहासकार जदुनाथ सरकार ने कहा है कि "मैं शिवाजी को हिन्दू प्रजाति का अंतिम रचनात्मक प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति और राष्ट्र निर्माता मानता हूँ।" 





 



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