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मराठा पेशवा बालाजी विश्वनाथ व मराठा साम्राज्य

 मराठा पेशवा बालाजी विश्वनाथ


पेशवा शब्द मुख्यमंत्री को संदर्भित करता है। पेशवा या प्रधान और बाद में ऐसे मुख्य व्यक्ति बन गए जिन्होंने एक बड़े मंदिर या एक बड़े परिवार के जागीर की व्यवस्था का ध्यान रखा। 


बालाजी विश्वनाथ (1713-20)
(Balaji Vishwanath)


  •  नाम-पंतप्रधान श्रीमंत बालाजी (बल्लाल) विश्वनाथ (भट्ट) देशमुख पेशवा

  • पिता-विश्वनाथपणंत विसाजी (भट्ट) देशमुख

  • जन्म- जनवरी 1662

  • जन्म स्थान -श्रीवर्धन, कोंकण

  •  मृत्यु-12 अप्रैल 1720

  • स्थान- सास्वड, महाराष्ट्र

  • पूना के सभासद-1696

  • पूना के सूबेदार-1699-1702

  • दौलताबाद के सूबेदार-1704-7

  •  पेशवा पदावधि-17 नवंबर 1713– 12 अप्रैल 1720

  • पूर्ववर्ती-परशुराम ट्रिम्बक कुलकर्णी

  • उत्तरवर्ती-पेशवा बाजीराव प्रथम

  • पत्नी-राधाबाई,गुलवती

  • संतान-पेशवा बाजीराव प्रथम

  • धर्म-हिन्दू




बालाजी विश्वनाथ के आरम्भिक जीवन के विषय में अधिक जानकारी नहीं है। वह कोंकण के एक 'चित्तपावन वंश' का  ब्राह्मण  थे जो अपनी बुद्धि और प्रतिभा के लिए प्रसिद्ध थे।बालाजी को करों के बारे में अच्छी जानकरी थी| उनके पूर्वज जंजीरा राज्य में श्रीवर्धन के वंशानुगत कर संग्रहकर्ता थे। बाला जी विश्वनाथ का सिद्धियों से झगड़ा हो गया क्योंकि उनके अंगरियों से सम्बन्धों थे जो जंजीरा' के सिद्द्यों के शत्रु थे, इसलिए उन्हें देश छोड़ कर सासवाड़ में जाना पड़ा।उसने अपना जीवन एक छोटे राजस्व अधिकारी के रूप में प्रारम्भ किया था।

 बालाजी के कर सम्बन्धी ज्ञान के कारण उन्हें मराठों के अधीन कार्य करने का अवसर मिला। ।1699 से 1708 तक बालाजी, धनाजी जादव की सेवा में रहे।इसी कालअवधी में (1699-1704 )औरंगजेब पूना में और खेड़ा में पड़ाव डाले हुए था| परन्तु उन्होंने बालाजी विश्वनाथ को कुछ नहीं कहा। शायद वह औरंगजेब के लिए रसद जुटाने में लगे थे।

1708 में धनाजी जादव की मृत्यु के बाद उसके पुत्र चन्द्रसेन जादव के ताराबाई के पक्ष में मिल जाने पर बालाजी विश्वनाथ को शाहू की सेवा में आने का अवसर प्राप्त हुआ।


जब तक औरंगजेब दक्षिण में रहा शाहू उसकी कैद में उसके साथ ही था। बालाजी विश्वनाथ ने शाहू से  शायद उन्हीं दिनों कुछ तालमेल स्थापित किया। विश्वनाथ ने 1705 में प्रच्छन्नरूप से शाहू को स्वतन्त्र कराने का प्रयत्न भी किया।लेकिन निराशा ही हाथ लगी| पर औरंगजेब की मृत्यु के बाद उस के उत्तराधिकारी बहादुरशाह ने शाहू को संभवतः यह सोचकर 1707 में मुक्त कर दिया कि उसके महाराष्ट्र में पहुंचने पर वहां मराठों में गृहयुद्ध छिड़ जाएगा।  हुआ भी वही तुरन्त गृहयुद्ध आरम्भ हो गया। 


मुगलों की कैद से शाहू की रिहाई तथा पेशवाओं का उत्कर्ष-


पेशवाओं की शक्ति का उत्थान शाहूराजाराम की विधवा पत्नी ताराबाई के मध्य चल रहे गृह युद्ध के दौरान हुआ। शाहू की चाची ताराबाई ने शाहू को झूठा दावेदार बताते हुए अपने पुत्र के लिए सतारा की गद्दी प्राप्त करने का प्रयत्न किया। अक्तूबर 1707 में खेड़ा में ताराबाई और शाहू के बीच गृहयुद्ध  जिसमें बालाजी ने शाहू का साथ दिया और अपनी कूटनीति से ताराबाई के सेनापति धन्नाजी को अपनी ओर मिला लिया और विजय प्राप्त की । जनवरी 1708 में शाहू ने सतारा अधिकार कर लिया । अब मराठा राज्य दो विरोधी उप राज्यों में विभक्त हो गया, एक राज्य सतारा के प्रमुख शाहू थे दूसरे राज्य कोल्हापुर के प्रमुख शिवाजी द्वितीय या वस्तुतःताराबाई थीं । 1708 में धन्नाजी की मृत्यु हो गई और शाहू ने उसके पुत्र चन्द्रसेन को अपना सेनापति नियुक्त कर लिया लेकिन चन्द्रसेन का झुकाव ताराबाई की तरफ था। इसलिए शाहू ने चन्द्रसेन के किसी प्रकार के विश्वासघात से बचने के लिए एक नया पद 'सेनाकर्ते' (सेना को संगठित करने वाला) बनाया और बालाजी को उस पद पर नियुक्त कर दिया।तथा सेना के गठन व देश में शान्ति व सुव्यवस्था की स्थापना का कार्य सौंपा।


समय ने पलटा खाया और 1712 में शाहू का सेनापति चन्द्रसेन और सीमा रक्षक कान्होजी आंगड़े  ताराबाई से जा मिले|उन्होंने शाहू और उसके पेशवा बहिरोपन्त पिंगले को बन्दी बना लिया और सतारा की ओर प्रस्थान की धमकी दी। उधर दिल्ली में शाहू के समर्थक जुल्फ़िकार ख़ाँ का भी वध कर दिया गया था। ऐसे कठिन समय में बालाजी विश्वनाथ के अलावा कोई और अधिकारी शाहू का इतना अधिक निष्ठावान,  विश्वासपात्र और सक्षम हितैषी सिद्ध नहीं हुआ । 

  अपनी कूटनीति से उसने चन्द्रसेन जादव को हराया सिंहासन को बचाया,। और फिर ताराबाई के समर्थकों में फूट डलवा दी।इसके अलावा उन्होंने सिद्दियों, अंग्रेज़ों और पुर्तगालियों की शत्रुता का दबाव डाला और कान्होजी को राष्ट्रीयता का वास्ता देकर कान्होजी आंगड़े को भी बिना युद्ध के शाहू की ओर मिला लिया। इस तरह बालाजी की सेवाओं से प्रसन्न होकर 1713 ई० में शाहू ने उसे पेशवा या मुख्य प्रधान नियुक्त किया।पेशवा के पद पर बालाजी की नियुक्ति के साथ ही यह पद वंशानुगत हो गया और बालाजी तथा उनके उत्तराधिकारी राज्य के वास्तविक शासक बन गए । इसके बाद छत्रपति नाममात्र का ही शासक होकर रह गया।



 उधर दिल्ली में 1713 में ही मुगल सिंहासन के युद्ध में फर्रुखसियर सैयद बन्धु हुसैन अली और अब्दुल्ला ख़ां की सहायता से सिंहासनारूढ़ हो एक बार पुन: षड्यंत्र का केन्द्र बन गया। फर्रुखसियर ने मुख्य सेनापति हुसैन अली को दक्षिण का वाइसराय नियुक्त किया और दूसरी ओर गुजरात के गवर्नर दाऊद खां और शाहू को इसके विरुद्ध युद्ध करने और उसे समाप्त करने के लिए प्रेरित किया ताकि उसे हुसैन अली मुक्ति मिल जाए| सैयद बन्धुओं को सम्राट के इस षडयंत्र की भनक लग गई |


1717 में अब्दुल्ला खां की मुगल  दरबार में स्थिति इतनी बिगड़ गई कि उसे भाई हुसैन अली को बुलाना पडा| उधर  हुसैन अली यह समझ गया था कि यदि उसे दक्षिण में अनुपस्थित रहना है तो उसे मराठों से मित्रता  रखनी होगी अन्यथा वे (सैयद बन्धु) मराठों और दरबारी षड्यंत्रों के बीच पिस सकते हैं| इसलिए हुसैन अली ने दिल्ली जाने से पूर्व मराठों से मित्रता करने की सोची।अब चुंकि शाहू भी अपनी माता तथा भाई  जो कि दिल्ली में कैद थे, मुक्त करवाना चाहता था, अतः वह तुरन्त इस मित्रता के लिए तैयार हो गया। 


इस संधि में बालाजी का बहुत बडा हाथ था| बालाजी विश्वनाथ की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि ही यही थी कि उसने मुगलों तथा मराठों के मध्य एक स्थायी समझौते की व्यवस्था की थी जिसमें दोनों पक्षों के अधिकारों तथा प्रभाव क्षेत्र की विधिवत व्यवस्था की गई।


मराठों की मुगलों के प्रति नीति में 1716 के बाद से परिवर्तन आया। फरवरी 1719 ई० में बालाजी ने मुगल सूबेदार सैयद हुसैन से एक सन्धि की| 

संधि की शर्तें बनाई गईं और मसविदा सम्राट की अनुमति के लिए दिल्ली भेज दिया गया। इस सन्धि की मुख्य शर्तों के अनुसार शाहू को :-


  •   शाहू को शिवाजी का स्वराज्य पूर्णरूपेण अधिकार में मिलेगा।स्वराज्य क्षेत्र पर राजस्व अधिकार की मान्यता दी गई।
  • खानदेश, बराड़, गोंडवाना, हैदराबाद और कर्नाटक के वे सभी क्षेत्र जो मराठों ने पिछले दिनों लिए थे,उन पर मराठों के अधिकार को मान्यता प्रदान की गई।अर्थात् वे शाहू को मराठा राज्य के भाग के रूप में मिल जाएंगी

  • मराठों को दक्कन के 6 मुगल सूबों तथा मैसूर, त्रिचनापल्ली व तंजौर में  मुग़ल प्रान्तों से चौथ तथा सरदेशमुखी प्राप्त करने का अधिकार होगा
  • शाहू कोल्हापुर के शम्भूजी को किसी प्रकार की हानि नहीं पहुंचाएगा
  • शाहू सम्राट को 10 लाख रुपया वार्षिक का कर या खिराज देगा।
  •  मुग़ल सम्राट शाहू की माता तथा अन्य सम्बन्धियों को छोड़ देगा।

शाहू ने स्वराज्य की मान्यता के बदले में मुगलों की सहायता के लिए 15,000 सैनिकों की सेना रखने, चौथ एवं सरदेशमुखी की वसूली के बदले मुगलों के क्षेत्रों को लूटपाट से मुक्त रखने का वचन दिया|


1719 में बालाजी विश्वनाथ एवं सैयद हुसैन अली के बीच हुई सन्धि का मुख्य कारण फर्रुखसियर को गद्दी से हटाना था।

 अतएव 1719 ई० में बालाजी विश्वनाथ ने  15,000 मराठों की एक सेना लेकर हुसैन अली के संग दिल्ली की ओर प्रस्थान किया।

ताकि वे  सैयद बन्धुओं की मदद कर सकें | दिल्ली में उन्होंने बादशाह फर्रुखसियर को हटाने में सैयद बन्धु की मदद की और मुगल साम्राज्य की कमजोरी को प्रत्यक्षत:देखा। 

इतिहासकार रिचर्ड टेम्पेल ने मुगल सूबेदार हुसैन अली तथा बालाजी विश्वनाथ के बीच 1719 में हुई सन्धि को मराठा साम्राज्य के मैग्नाकार्टा की संज्ञा दी है।

सैयद बन्धुओं ने सम्राट फर्रुखसियर को सिंहासन से

उतार दिया उसके स्थान पर रफ़ी-उद्द-रजात को अगला मुगल सम्राट बनाया|

मराठा मुगल सन्धि (बालाजी विश्वनाथ तथा हुसैन अली के बीच) की शर्तों को मान्यता रफीउद्जात ने दी थी।




वास्तव में चौथ का देना इस तथ्य का द्योतक था कि मुग़लों की स्थिति मराठों की तुलना में क्षीण हो गई थी। मराठों ने मुग़लों की कमर तोड़ दी थी और मुगलों की दक्कन की आय का चौथा भाग उन्हें मिलने लगा। इससे तथा शाहू के राज्य पर अधिकार को मान्यता मिलने से महाराष्ट्र में उसका मान बढ़ गया। वह मराठों का पूर्णरूपेण नेता बन गया। शम्भूजी की आकांक्षाओं पर पानी फिर गया। अब निश्चय ही आकाश में एक नया तारा चमक रहा था।

दिल्ली से लौटने पर बालाजी का अन्तिम कार्य कोल्हापुर के विरुद्ध सैनिक अभियान था। शम्भूजी उसकी अनुपस्थिति में अनेक कठिनाइयां उत्पन्न करने का प्रयत्न कर रहे थे विश्वनाथ का 2 अप्रैल, 1720 को देहावसान हो गया।


बालाजी विश्वनाथ का मूल्यांकन-


बी .एल ग्रोवर के अनुसार"बालाजी स्वनिर्मित व्यक्ति थे। शून्य से चल कर वह पेशवा बन गए। आज उनका स्मरण एक वीर योद्धा के रूप में ही नहीं अपितु राजनीतिज्ञ और राजमर्मज्ञ (politician and statesman) के रूप में किया जाता है। वह मराठा राजनीति की गहनता को समझते थे और इसी कारण उन्होंने ताराबाई अथवा यशुबाई को छोड़कर शाहू को अपनाया। अपनी कूटनीति के कारण उन्होंने धन्नाजी जादव, खाण्डे राव दहबाड़े, परशोजी तथा सबसे प्रमुख कान्होजी आंगड़े को शाह की ओर मिला लिया। अपनी कूटनीति से उन्होंने देश को गृहयुद्ध से बचाया तथा माधाजी कृष्ण जोशी जैसे साहूकारों की सहायता से शाहू को अपनी वित्तीय कठिनाइयों से छुटकारा दिलाया। उसके सैयद बन्धुओं के सौदे के कारण राज्य को 30 लाख रुपया मिला और नियमित रूप से 35 प्रतिशत वार्षिक कर, चौथ तथा सरदेशमुखी के रूप में मिलने लगा। युद्धपीड़ित देश में शान्ति स्थापित कर मराठों की शक्ति को साम्राज्य के गठन में लगाया।"




सर रिचर्ड टेम्पलके अनुसार- - 'बालाजी विश्वनाथ अपने उत्तराधिकारियों से अधिक कट्टर ब्राह्मण था। वह शान्त स्वभाव वाला और अत्यन्त बुद्धिमान व्यक्ति था। वह दूसरे के शुष्क व्यवहारों को अपने मधुर व्यवहार से जीतना जानता था।'

 बालाजी विश्वनाथ का व्यक्तित्व , प्रतिभा तथा देश की तत्कालीन परिस्थितियाँ, सत्ता और ख्याति की दृष्टि से पेशवाओं के उत्थान के अनुकूल थीं। बालाजी के सामने सबसे पहला कार्य शाहू की माता को मुगलों की कैद से सुरक्षित छुड़ाना था जिन्हें शाहू पर दबाव बनाए रखने के लिए मुगलों ने दिल्ली में कैद कर रखा था । बालाजी के प्रयास से ही  सैयद बन्धुओं (मुगलों)के साथ  फरवरी 1719 में संधि हुई| जिसके अनुसार शाहू की माता और उनके परिवार को रिहा कर दिया गया | इसके अलावा शाहू को शिवाजी के गृह राज्यों का शासक स्वीकार करना, कर्नाटक और तमिलनाडु के समान ही दक्कन के छ: सूबों से चौथ और सरदेखमुखी वसूल करने की अनुमति मिलनाआदि इस संधि की शर्तों में शामिल था| इस प्रकार दिल्ली में बालाजी को मिली सफलता से उनकी शक्ति और प्रतिष्ठा में काफी वृद्धि हुई।


बालाजी विश्वनाथ सही अर्थों में मराठा साम्राज्य के द्वितीय पुनर्संस्थापक थे। वे समझते थे कि जब तक मराठा सरदारों, जिन्होंने अपने शौर्य के बल पर विशेष प्रतिष्ठा अर्जित की थी, को विशेष रियायतें प्रदान नहीं की जातीं तब तक  पुराने राजतंत्रीय रूप में मराठा साम्राज्य का पुनरुत्थान तथा समान लक्ष्य के लिए मराठा सैनिक संसाधनों का सदुपयोग तब तक सुगम नहीं होगा|  उन्होंने मराठा सरदारों को सम्राट के अधीनस्थ मित्र राज्यों या संघ राज्यों के रूप में मान्यता और उन्हें उनके द्वारा विजित प्रदेशों पर स्वतंत्रतापूर्वक शासन करने की अनुमति दी ।और बदले में पेशवा ने मराठा सरदारों से समान नीति विषयक मामलों में पहले से कहीं अधिक एकता और त्याग के लिए तैयार रहने की अपेक्षा की । इससे मराठा सरदार काफी शक्तिशाली हो गए,और उन पर अंकुश रखने के लिए कोई प्रतिरोधी व्यवस्था न होने से यही व्यवस्था मराठा शक्ति के तीव्र विस्तार और उसके तीव्र विघटन के लिए उत्तरदायी हुई। 


पेशवा बालाजी के पेशवा-काल में  छत्रपति शाहू की शक्ति के स्थान पर पेशवाओं की शक्ति और शासन का उदय हुआ, अर्थात छत्रपति के स्थान पर पेशवा शक्ति और सत्ता का केन्द्रबिन्दु हो गया|

 बालाजी को राज्य के वित्त संसाधनों के निपुण प्रबन्धक' माने जाते है ।बालाजी ने राजकीय प्रशासन से सीधे सम्बद्ध स्वराज प्रदेश में सुसंगठित राजस्व प्रणाली के लिए  अहमदनगर में मलिक अम्बर द्वारा अपनाए गए कर निर्धारण को आधार रूप में स्वीकार किया।

 निरन्तर युद्धों और कूटनीति में उलझे रहने पर भी उन्होंने राज्य में अराजकता को समाप्त करने के लिए प्रयास किए । लुटेरों का दमन करके उन्होंने असैनिक शासन-व्यवस्था की स्थापना की ।उन्होंने स्वराज प्रदेशों में सीधे केन्द्रीय प्रशासन के अन्तर्गत एक सुसंगठित राजस्व व्यवस्था की स्थापना की। उन्होंने इन प्रदेशों में अहमदनगर के मलिक अम्बर की भू-राजस्व व्यवस्था का प्रचलन किया।


और स्वराज के बाहर भू-राजस्व एवं चौथ तथा सरदेशमुखी की वसूली का अधिकार उन मराठा सरदारों को दिया गया, जिनका उन क्षेत्रों में अपनी सत्ता और प्रभाव-क्षेत्र था|जैसे- गुजरात सेनापति को ,गोण्डवाना नागपुर के भोंसले को, कोंकण कान्होंजी आँगरिया को ,कर्नाटक फतेह भोंसले को, खानदेश, बगलाना और मध्य भारत पेशवा को दिए गए । जहाँ वो राजस्व की वसूली करते, प्रदेश का प्रशासन चलाते, व स्थानीय सेनाएँ रखते थे|  तथा शाही राजकोष में अपनी आय में से कुछ अंश देते थे । ये मराठा सरदार मूलतः स्वतंत्र शासक थे जिन पर छत्रपति का  नियंत्रण नाममात्र का था । धीरे धीरे महत्त्वाकांक्षा और मिथ्याभिमान के कारण इन्होंने पारस्परिक स्वार्थों को अधिक महत्त्व दिया जिससे उनमें घातक प्रतिद्वन्द्विता का उदय हुआ।  कुल मिलाकर मराठा इतिहास के संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि बालाजी विश्वनाथ की पेशवा के रूप में नियुक्ति, छत्रपति  या मराठा राजसत्ता के पतन का सूचक है।







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