Header Ads Widget

Ticker

6/recent/ticker-posts

मुगल शासक औरंगजेब का साम्राज्य विस्तार में दक्कन नीति


औरंगजेब का साम्राज्य विस्तार  (1658-1707 ई० ) व दक्कन नीति

 

 

 आगरा पर अधिकार करने के पश्चात 21 जुलाई 1658 को औरंगजेब ने दिल्ली में अपना राज्याभिषेक किया । और ‘अबुल  मुजफ्फर आलमगीर' की  उपाधि धारण की । परंतु अपना औपचारिक राज्याभिषेक खंजवा  और देवराई के युद्ध में क्रमशः राजा और दारा को अन्तिम रूप से परास्त  करने के बाद पुनः 5 जून 16591 को दिल्ली में करवाया। बादशाह  बनने के बाद औरंगजेब ने जनता के आर्थिक कष्टों के निवारण के लिए ‘राहदरी' (आन्तरिक पारगमन शुल्क) और पानदारी ( व्यापारिक बुंगियों) आदि प्रमुख आबवाबों  (स्थानीय करों) को समाप्त कर दिया।

 

मुगल शासक औरंगजेब का साम्राज्य विस्तार,भारतीय इतिहास

 

औरंगजेब का  साम्राज्य विस्तार के लिए  सैन्य अभियान

 

1660 ई०  में औरंगजेब  ने  मीर जुमला को बंगाल का गवर्नर बनाकर उसे पूर्वी प्रान्तों मुख्यतः  अराकान और असम  के विद्रोही जमीदारों का दमन करने का आदेश दिया।

1661 ई० में मीरजुमला ने कूचबिहार पर आक्रमण किया और 1662 ई० में अहोमों को सन्धि करने के लिए मजबूर कर दिया। जिसके परिणामस्वरूप  अहोमों ने मुगलों को वार्षिक कर एवं  युद्ध की क्षतिपूर्ति देना स्वीकार कर लिया

मीरजुमला की मृत्यु के पश्चात् 1663 ई० में शाइस्ता खाँ को बंगाल का गवर्नर नियुक्त किया गया।  उसने 1666 ई० में पुर्तगालियों को दण्ड दिया, अराकान के राजा से चटगाँव जीत लिया और बंगाल की खाड़ी में स्थित सोनदीप पर अधिकार कर लिया।  

 

औरंगजेब की दक्कन नीति

 

शाहजहाँ के शासन काल में  औरंगजेब दक्षिण का सूबेदार रहा । 1636-44 ई० तक दक्षिण के सूबेदार के रूप में रहते हुए औरंगाबाद को मुगलों के दक्षिण सूबे की राजधानी बनाया था।  औरंगजेब को मराठों की शक्ति को समाप्त करने के लिए  दक्षिण के राज्यों के स्वतंत्र अस्तित्व को समाप्त करना आवश्यक था क्योंकि बिना इसके  मराठों के अस्तित्व को समाप्त असम्भव था।

 

 

 

 

 1681 मे औरंगजेब के पुत्र शहजादा अकबर ने राजपूतों से प्रेरणा पाकर विद्रोह कर दिया । उसका पीछा करता हुआ औरंगजेब1682 ई० में दक्षिण भारत पहुँचा लेकिन  उसके पश्चात् उसे उत्तर भारत में आने का अवसर नहीं प्राप्त हुआ।और कहा जाता है कि-"यही दक्षिण भारत औरंगजेब का कब्रिस्तान सिद्ध हुआ।"  दक्षिण भारत की  पांच स्वतंत्र सल्तनतों में से बरार को 1574 ई० में मुर्तजा खाँ ने अहमद नगर में तथा बीदर को 1619 ई० में इब्राहीम आदिशाह ।। ने बीजापुर में मिला लिया था। 

 

औरंगजेब के दक्षिण में लड़े गये युद्ध

 

इन  युद्धों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है –

1.    बीजापुर एवं गोलकुण्डा के विरुद्ध युद्ध एवं विलय तथा

2.   मराठों की चार पीढ़ियों शिवाजी (1640-80) शम्भा जी ( 1680-89) राजाराम (1689--1700) एवं उसकी विधवा ताराबाई (1700- 1707) के विरुद्ध युद्ध।

 

1665 ई० में औरंगजेब ने राजा जयसिंह (जयपुर) को बीजापुर एवं शिवाजी का दमन करने के लिए भेजा।  सर्वप्रथम जयसिंह ने शिवाजी को पुरन्दर की सन्धि (1665ई . ) करने के लिए विवश किया । यह जय सिंह की  कूटनीतिक विजय थी। इससे पहले औरंगजेब ने अपने  मामा शाइस्ता खाँ को शिवाजी का दमन करने के लिए दक्षिण भेज था पर उसके असफल होने पर उसे वापस बुला लिया गया । इसी तरह  जय सिंह को भी बीजापुर के विरुद्ध सफलता  हासिल नहीं हुई और रास्ते में सुजानपुर में जयसिंह की  मृत्यु हो गयी।

 

मुगल सूबेदार दिलेर खाँ ने 1676 में बीजापुर के मंत्री सिद्दी मसूद को मिलाकर संधि  करने के लिए मजबूर कर दिया। तथा सुल्तान की बहन  शहजादी शहरबानू  का विवाह शहजादा आजम के साथ करने के लिए दिल्ली भेज दिया गया।

 

बीजापुर का विलय

 

उस समय बीजापुर में आदिलशाही वंश का शासन था । अन्तिम आदिलशाही सुल्तान सिकन्दर आदिलशाह ने  22 सितम्बर, 1686ई . को औरंगजेब के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। जिसके परिणाम स्वरूप  बीजापुर को मुगल साम्राज्य का हिस्सा बना लिया गया। औरंगजेब ने सिकन्दर आदिलशाह को 'खान' का पद दिया एवं 1 लाख रुपये वार्षिक पेंशन  भी दी गयी। सिकन्दर आदिलशाह की मृत्यु मात्र 32 वर्ष की अल्पायु में हो गयी, और उसे उसकी अन्तिम इच्छा के अनुसार धार्मिक गुरू शेख फहीमुल्ला की कब्र के पास दफना दिया गया।

 

गोलकुंडा का विलय

 

 बीजापुर को साम्राज्य में मिलाने के बाद अब बारी आई गोलकुंडा की । गोल कुण्डा विश्वभर में बड़े होरों की बिक्री का एक महत्वपूर्ण बाजार था। औरंगजेब ने 1686 ई० में ही शाहजादा शाहआलम को गोल कुण्डा पर आक्रमण करने के लिए भेजा। इस का कारण यह भी था कि  वह गोल कुण्डा को साम्राज्य में मिलाकर ही निष्कटकंटकता  से मराठों  से संघर्ष करना चाहता था।

 

औरंगजेब ने स्वयं ही 1687 में गोलकुण्डा पर आक्रमण करके किले को घेर लिया।लेकिन आठ महीने के घेरे के बाद भी मुगलों को कोई सफालता नहीं मिल पाई तो अन्त में औरंगजेब ने अब्दुल्लागनी नामक एक अफगान को लालच देकर अपनी और मिला लिया और उस अफगान ने अपने मालिक से विश्वासघात करके किले का फाटक खोल दिया। और इस तरह अक्टूबर 1687 ई में मुगलों ने  गोल कुण्डा के किले को मुगल साम्राज्य में मिला लिया।एसा कहा जाता है कि औरंगजेब ने गोल कुण्डा के किले को 'सोने की कुंजियों से खोला ठीक उसी तरह जिस तरह अकबर ने असीरगढ़ के किले को खोला था।

 

मराठों से संघर्ष

 

 मुगलों के साथ शिवाजी का पहला संघर्ष तब आरम्भ हुआ जब शिवाजी ने अहमदनगर और जुन्नार के किले पर आक्रमण किया। औरंगजेब ने 1660 ई० में दक्षिण के मुगल सूखदार शाइस्ता खाँ को शिवाजी का पतन  करने के लिए भेजा। मामा शाइस्ता खौं ने पूना , शिवपुर और चाकन आदि किलों पर अधिकार कर लिया।

 

1663 ई० में शिवाजी ने पूना स्थित शाइस्ता खाँ के महल पर कड़े पहरे के बीच  रात में चुपके से आक्रमण कर दिया। शाइस्ता खाँ बड़ी मुश्किल से अपनी जान बचाकर भागा, लेकिन उसका एक अंगूठा कट गया।और उसका पुत्र मारा गया । 

औरंगजेब ने 1665 ई. जयसिंह को शिवाजी काबू पाने के लिए उसके विरुद्ध भेजा । महीनों तक पुरंदर की नाकेबंदी करने के पश्चात जयसिंह ने शिवाजी को  22 जून 1665 ई० को पुरन्दर की सन्धि' करने के लिए विवश कर दिया। पुरन्दर की सन्धि के अनुसार शिवाजी को अपने चार लाख हून वाले 23 किले मुगलों को सौपने पड़े तथा बीजापुर के खिलाफ मुगलों की सहायता करने का वचन देना पड़ा।

 

 

जयपुर के राजा जयसिंह  की यह व्यक्तिगत कूटनीतिक जीत थी।कूटनीतिक चाल के तहत शिवाजी से सन्धि कर ली, क्योंकि बीजापुर को जीतने के लिए शिवाजो से मैत्री करना आवश्यक था ।  सन्धि की शर्तों के अनुसार  शम्भा जी मुगल दरबार में पंचाजारी मनसब देना, उचित जागीर देना, तथा शिवाजी का मुगल दरबार में उपस्थित होना था।

 

शिवाजी 22 मई,666 ई० को आगरा के किले में 'दीवाने आम' में उपस्थित हुआ। यहीं पर शिवाजों को कैद कर जयपुर भवन' में रखा गया। जहाँ से वे गुप्त रूप से फरार हो गये।पुरंदर की संधि के बाद शिवाजी का मुगल दरबार में आना , वहाँ उनकी कैद ,और बड़ी चतुराई से वहाँ से उनका भाग जाना ,भारतीय इतिहास का सुविदित तथ्य है ।

 

 

 शिवाजी की मृत्यु के बाद नवगठित मराठा साम्राज्य में आंतरिक फूट पड़ गई ।तथापि  उसके पुत्र शम्भा जी ने मुगलों से संघर्ष जारी रखा लेकिन असावधानी के कारण 1689 ई० में अपने मंत्री ‘कवि कलश' के साथ बंदी बना लिए गए । तथा  21 मार्च, 1689 ई० में शम्भा जी का क्रूरता पूर्वक कत्ल कर दिया गया। शम्भा जी की मृत्यु के बाद उसके सौतेले भाई राजाराम के नेतृत्व मे मराठों का मुगलों से संघर्ष जारी रहा जो मराठा इतिहास में 'स्वतंत्रता संग्राम' के नाम से विख्यात है।

1690 ई० तक मुगल साम्राज्य अपने चरमोत्कर्ष पर था, जो काबुल से लेकर चटगाँव और कश्मीर से लेकर कावेरी नदी तक फैला था। लेकिन औरंगजेब की यही दक्कन नीति उसके व्यक्तिगत तथा मुगल साम्राज्य दोनों के पतन का कारण बनी।और यह पतन और विघटन की स्थति औरंगजेब की मृत्यु के आधी शताब्दी के भीतर ही पूरी हो गई ।   कहा जाता है कि"जिस प्रकार स्पेन के नासूर ने नैपोलियन को नेस्तनाबूद कर दिया उसी प्रकार दक्कन के नासूर ने औरंगजेब को नेस्तनाबूद कर दिया।“

 

Post a Comment

0 Comments