अकबर के नाम अमिट कलंक
भारत के मध्यकालीन इतिहास में "अबुल फतह जलाल-उद-दीन मुहम्मद अकबर"
मुगल साम्राज्य का एक चमकता हुआ सितारा जिसके शरीर मे इतिहास के तैमूर लंग व चंगेज खान का खून दौड़ रहा था उसके बारे में कहा जाता है जो वो कहता था वो ही करता था जिसकी लालसा होती थी वही उसे प्राप्त हो जाता था बड़े बड़े राजा महाराजा शूरवीर उसके आगे नतमस्तक होने लगे देखा जाए तो बाबर के राज्य का सच्चा वारिस वही था हुमायूं तो मात्र एक रंगमच में जैसे एक पर्दा एक कार्यक्रम व दूसरे कार्यक्रम के बीच में दोनों को जोड़ने का काम करता उसी के समान नियति से आया था
अकबर उसके शासन के शुरुआती समय मे कुछ वर्षों के लिए पर्दा शासन या पेटीकोट सरकार द्वारा प्रभावित था।वह कुछ ही दिनों में उस तथाकथित पर्दा शासन से मुक्त हो गया अब वह मुक्त गगन में एक बाज के समान उड़ना चाहता था वो एक शिकारी बनकर सभी का शिकार करके अपने छत्र छाया में लेना चाहता था
परन्तु एक घटना ऐसी घटी जो अकबर के जीवन पर हमेशा के लिए न मिटने वाला कलंक छोड़ गई ।
अकबर की नजर राजपूताने पे पड़ी उस राजपूताने पर
जिसके राजपूत योद्धाओं ने उसके दादा बाबर के अहम को भी चुनौती दी थी । पंरतु खानवा युद्ध मे इस राजपूत जाति के बहुत से महान योद्धा एवं समाज के कर्ण धार काम आए थे अतः अब मालदेव मारवाड़ के अलावा कोई भी शक्तिशाली शासक नही बच था वो भी अंत मे अकबर से हार गया ।
एक बार अकबर को मेवाड़ के बारे में पता चला तो उसे भी विजित करने के बारे में सोचने लगा उसने अधीनता स्वीकार करने हेतु अपने सन्देश भिजवाए पर चितौड़ के तत्कालीन राणा ने उन सबको नकार दिए अंत मे अकबर ने भुजबल से चितौड़ अधिग्रहण हेतु अकबर माण्डलगढ के मार्ग से 23 अक्टूबर , 1567 को
चित्तौड पहुंचा । किले मे कुछ दूर पाण्डोली , कावरा जोर नगरी गाँव से घिरे हुए मैदानी भाग में उसने शाही फौजी के पड़ाव डाले और एक दल को राणा का पता लगाने के लिए कुम्भलगढ़ की पहाडियो में भेजा । हुसैन कुली खा राणा का पीछा करने वाले दल का नेता था । वह चारो ओर घूमकर कोरे हाथ लौटा , क्योंकि राणा ने अपने परिवार को तो गिरवा की पहाडियो में सुरक्षित छोडा था और वह स्वय राजपीपला से लेकर बाहरी गाँव में संगठन के लिए घूमता फिरता था ।वही सीसोदिया पत्ता तथा मेड़तिया राठौर जैमल, दोनों महाराणा, उदयसिंह की अनुपस्थिति में दूर्ग के रक्षक नियुक्त हुए थे।
जब कोई रास्ता नहीं बचा तो अन्त मे हताश होकर अकबर ने चित्तोड दुर्ग के पर्यवेक्षण का प्रबन्ध करवाया और तीन मार्गों पर साबात तथा मुरगे लगाने का आदेश दिया ।किले पर नीचे से तोपो का निशाना लगाना आसान नही था अतः अकबर ने सैनिकों को एक मगरी बनाने का आदेश दिया कहते है अकबर के इस आदेश की पालना करने को कोई तैयार नही हुआ तो एक टोकरी मिट्टी के बदले एक सिक्का देने पर सैनिक राजी हुए ।
जब सैनिक टोकरी डालते तो ऊपर किले से गर्म तेल व पत्थर आकर उन पर गिरते कुछ तो वही दफन हो गए उनको उसी मगरी में ही दफन कर दिया गया ।
मगरी तैयार हुई अकबर ने अपना तोपखाना तान दिया । लाखोटा बारी वाले मोर्चे पर स्वय अकबर रहा जिससे कि जयमल का यहाँ से सीधा मुकाबला किया जा सके । किले के पूर्व की तरफ सूरजपोल के सामने शुजातखा , राजा टोडरमल और कासिम खा की अध्यक्षता मे तोपखाना लगाया गया । तीसरे मोर्चे पर , जो किले के दक्षिण में चित्तौडी बुर्ज के सामने था , अब्दुल मजीद , आसफ खा आदि रखे गये । तीनो ओर वाले साबातो को किले के निकट ले जाया जाता था , ज्यो - त्यों सुरगें खोदने का काम सम्पादन हुआ। दो सुरगों में , एक में 120 मन बारुद और दूसरे में 80 मन बारुद भर कर उडायी गयी । मोर मगरी वाली सुरंग भी चली । इन सुरंगो में दोनो ओर बुर्जो को बड़ी क्षति पहुंचायी और दोनों पक्षो के सैनिक भी हताहत हुए , परन्तु राजपूत शीघ्र ही इनको दुरुस्त करवा देते थे तथा तेल से भीगे कपड़ो को जलाकर या पत्थर के गोलो को लुढकाकर शत्रुओ को भीतर घुसने से रोकते थे । एक दिन रात को दीवार की मरम्मत कराते समय जैमल जब निरीक्षण कर रहा था जब अकबर की प्रसिद्ध संग्राम बन्दूक से उसे घायल कर दिया गया गोली टांग पर लगी। इससे कुछ समय किले में सन्नाटा छा गया । थोड़ी देर में किले के भीतर चारों ओर आग की लपटें उठने लगी , जिससे निश्चित हो गया कि ' जौहर ' के रस्म के बाद दूसरे दिन सभी योद्धा अपने प्राणों की आहुति लगा देंगे । प्रातः होते - होते राजपूत वीर केसरिया बाना पहनकर शत्रुदल का मुकाबला करने चल पडे । किले के फाटक खोल दिये गये ।
अकबर ने भी अपने हाथियों के दलों जो कि हाथियों को भी जिरह बख्तर पहना कर आधुनिक समय के युद्ध टैंकों के समान घातक बना रखे थे उनको सूंड मे ख़ंजर देकर नर - सहार करने भेजा और स्वयं भी एक हाथी पर सवार हो इस भीषण दृश्य का निरीक्षण करने लगा । राजपूत सैनिकों की वीरता से हाथी भी थर्रा गए क्योंकि कई घायल राजपूत सैनिकों ने हाथियों के दांत उखाडकर अपनी अन्तिम घडी तक युद्ध किया ।
ईसरदास चौहान ने एक हाथ में अकबर के हाथी का दाँत पकड़कर दूसरे से सूंड पर खंजर मारकर गुण ग्राहक बादशाह को अपना वीरोचित अभिवाचन किया ।बादशाह अकबर को जीवन मे एकमात्र इसी समय बहुत भय का आभास हुआ था क्योंकि मौत उसके बहुत पास से होकर निकल गयी थी । सहस्रों की संख्या मे सैनिकों तथा नागरिकों ने शत्रुदल का सामना किया , पर शक्तिशाली मुगल सेना ने उन्हे नष्ट कर दिया या कुचल डाला ।
उधर जैमल जो घायल था उसने भी कल्ला को ललकार कर कहा कि राजपूत ऐसे घायल होकर नहीं मरते राजपूत तो तलवारों को चूमते हुए मरते है पैर से घायल जैमल की बात कल्ला समझ गया उसने जैमल को अपने कंधों पर बिठाकर दूसरे दिन के युद्ध में उतारा था। उन दोनों ने मिलकर शत्रु सेना पर कहर ढा दिया। वर्तमान में भैरव पोल के पास ही दाहिनी ओर दो छतरियाँ बनी हुई है। प्रथम चार स्तम्भों वाली छत्री प्रसिद्ध राठौड़ जैमल( जयमल बदनोर के राजा) के कुटुंबी कल्ला की है तथा दूसरी, छः स्तम्भों वाली छत्री स्वयं जैमल की है, जिसके पास ही दोनों राठौड़ मारे गये थे। जैमल शहीद हो गए तो कल्ला और भी वीभत्स रूप धारण कर लड़ने लगा वर्तमान में रामपोल में प्रवेश करते ही सामने की तरफ लगभग 40-50 कदम की दूरी पर स्थित चबूतरे पर सीसोदिया पत्ता के स्मारक का पत्थर है। पत्ता अकबर की सेना से लड़ते हुए इसी स्थान पर वीरगति को प्राप्त हुए थे। कहा जाता है कि युद्ध भूमि में एक पागल हाथी ने युद्धरत पत्ता को सूंड में पकड़कर जमीन पर पटक दिया जिससे उनकी मृत्यु हो गयी।
ये छतरियाँ आज भी उन्हीं महान जैमल व पत्ता की गौरवगाथाओं की याद दिलाती हैं।सम्राट जयमल और पत्ता की बीरता से इतना मुग्ध हुआ कि उसने आगरे के किले के द्वार पर इन दोनों वीरो की पाषाण मूर्तियाँ हाथी पर बैठी हुई मुद्रा में बनवाकर लगवाई थी युद्ध जीतने के पश्चात् अकबर ने राजपूतो के शौर्य से अपने सैनिकों की हुई हानि को देखकर आवेश में आकर किले में कत्ल ए आम की इजाजत दे दी ।
अकबर ने तीन दिन तक इस प्रकार मार - काट की गतिविधि से 25 फरवरी , 1568 को किले पर पूर्ण अधिकार स्थापित कर लिया । अकबर ने अपने जीवन मे नृसंश संहार का दृश्य जैसा यहाँ पैदा किया वैसा और कहीं नहीं किया इसमें आम जनता स्त्रियों बच्चो को निर्ममतापूर्वक काट डाला गया ऐसा दृश्य देखकर आम आदमी मूर्छित हो जाए इसी कुकृत्य के कारण यह कृत्य उस महान मुगल की शान में आज भी एक अमिट कलंक है! जिसका जीवन भर उसे पश्चाताप रहा ।यह कार्य वास्तव में उस महान सम्राट के लिए शोभनीय नहीं था क्योकि यह मानवजाति व न्याय का उलंघन एक अन्यायपूर्ण तरीके से बहुत ही निर्ममता पूर्वक किया गया .
इस युद्ध को वह जीतकर भी हार गया और राजपूत हारकर भी जीत गए
0 Comments