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उत्तरवर्ती मुगल शासक बहादुर शाह ज़फर

 बहादुर शाह ज़फर - अंतिम मुगल शासक


बहादुर शाह ज़फर ( 1837-57):-


 1803 में अंग्रेजों ने दिल्ली पर अधिकार कर लिया और शाह आलम द्वितीय और उसके दो उत्तराधिकारी अर्थात मुगल सम्राट अकबर द्वितीय (1806-37) और बहादुर शाह द्वितीय (1837-57) ईस्ट इण्डिया कम्पनी के पेंशन-भोगी मात्र बन कर रह गए। तथापि यह कहानी का एक अंश मात्र है; मुगल साम्राज्य 1739 ई. में नादिर शाह के आक्रमण के कुछ समय पूर्व और इसके बाद अनेक स्वायत्त राज्यों में विघटित हो चुका था और अठारहवीं शताब्दी के अन्त में केवल 'मुगल नाम ही शेष रह गया था।

 सम्राट अहमद शाह (1748-54) और आलमगीर द्वितीय (1754-59) इतने निर्बल थे कि वे इस पतन को रोक नहीं सके। उत्तर-पश्चिम की ओर से अहमद शाह अब्दाली ने 1748, 1749, 1752, 1756-57 और 1759 में आक्रमण किए और वह अधिकाधिक उद्दण्ड होता चला गया। शाह आलम द्वितीय (1759-1806) और उसके उत्तराधिकारी केवल नाममात्र के ही सम्राट थे और अपने अमीरों, मराठों अथवा अंग्रेजों के हाथ की कठपुतलियाँ ही थे। 1803 में अंग्रेजों ने दिल्ली जीत ली। अंग्रेज़ों ने मुग़ल साम्राज्य का ढोंग 1858 तक बना  जब  तक अन्तिम मुग़ल सम्राट बहादुरशाह ज़फ़र को रंगून में निर्वासित कर दिया गया।



बहादुरशाह द्वितीय जफर (1837-1857):- 

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 मुगल बादशाह अकबर द्वितीय की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र बहादुरशाह द्वितीय (बहादुरशाह जफर) मुगल सिंहासन पर आसीन हुआ. 

बहादुरशाह जफर का जन्म 24 अक्तूबर, 1775 में हुआ था। उनके पिता मुगल बादशाह अकबर शाह द्वितीय थे| अपने पिता की मृत्यु के बाद जफर को 28 सितंबर, 1837 में मुगल बादशाह बनाया गया।  उस समय तक दिल्ली की सल्तनत बेहद कमजोर हो गई थी और मुगल बादशाह नाममात्र का सम्राट रह गया था।

बहादुरशाह जफर अंतिम मुगल सम्राट था. इसके शासनकाल में अंग्रेजों की शक्ति में उत्तरोत्तर का वृद्धि होती गई. 1857 ई. का विद्रोह अथवा क्रांति इसके शासनकाल की मुख्य घटना थी इस क्रांति का नेतृत्व बहादुरशाह जफर ने ही किया. अंग्रेजों द्वारा इस विद्रोह का दमन कर दिया गया तथा बहादुरशाह जफर  को बंदी बनाकर रंगून निर्वासित कर दिया गया.क्योंकि उसने1857 के विद्रोह में विद्रोहियों का साथ दिया था| 


1857 ई. का विद्रोह अथवा क्रांति में बहादुरशाह जफर


विद्रोह की चिंगारी मेरठ से फूटी फिर मेरठ से सिपाहियों का एक दस्ता दिल्ली में लाल किले के भीतर पहुँचा। यहाँ वह दस्ता मुगल सम्राट बहादुरशाह द्वितीय से यह अपील करने आया था कि सम्राट इन सिपाहियों को नेतृत्व प्रदान करे। वैसे तो ईस्ट इंडिया कपनी के पेशनभोग्ता मुगल समाट के पास उस समय न सिपाहियों की रहनमाई करने के लिए कुछ नहीं था। हाँ मुगल सम्राट का नाम इन सिपाहियों के विद्रोह को महत्त्व तो  अवश्य ही प्रदान सकता था। इसलिए जब सिपाहियों ने मुगल सम्राट से नेतृत्व की गुजारिश की तो  पहले तो वह कुछ हिचकिचाए क्योंकि वह यह निर्णय नहीं ले पा रहे थे कि आखिर  ये सिपाही चाहते क्या हैं. और फिर क्या वह खुद भी इस लड़ाई में कोई प्रभावी भमिका निभाने लायक हैं ? कुछ भी हो लेकिन सिपाहियों ने अन्त में बहादुरशाह  जफर को खुद को शहंशाह-ए-हिंदुस्तान घोषित करने  के लिए राजी कर लिया ।

इसके बाद सिपाहियों ने दिल्ली पर कब्जा किया और इसके साथ ही 1857 के विद्रोह की शुरुआत हुई। 

दिल्ली पर कब्जे और बहादुरशाह द्वितीय द्वारा खुद को हिंदुस्तान का सम्राट घोषित किए जाने से इस विद्रोह को एक सकारात्मक ऊर्जा मिली।व लोगों की बहुत आस बंधी  यही नहीं, इससे गुज़रे जमाने की दिल्ली की ताकत और आन-बान की याद भी लोगों के दिमाग में ताज़ा हुई |

1857 का विद्रोह के समय दिल्ली की मुगल सरकार का स्वरूप कुछ-कुछ सेनाशाही की तरह का था। जिसमें  मुगल सम्राट बहादुर शाह सर्वोच्च था और जिस तरह संवैधानिक सम्राट का सम्मान किया जाता है उसी  तरह ही उसका सम्मान किया जाता था।सम्राट के नाम पर अधिकरण राजकाज का संचालन करता था।संसद तो नहीं थी लेकिन संसद के स्थान पर सैनिकों की एक परिषद थी, जिसमें सत्ता निहित थी. लेकिन सम्राट उसका सैनिक कमांडर नहीं था।


1857 का विद्रोह के समय निर्णय बहुमत से लिए जाते थे।  इसी तरह विद्रोह के दूसरे केंद्रों में भी संगठन बनाने का प्रयत्न किया गया।1857 का विद्रोह के सभी विद्रोही नेता बहादुरशाह को अपना सम्राट मानते थे। मुगल बादशाह के नाम पर सिक्के  ढाले जाते और आदेश भी जारी किए जाते थे।उदाहरण के लिए बरेली में खान बहादुर खाँ मुगुल सम्राट के नाम पर प्रशासन चला रहे थे। यह भी अर्थपूर्ण है कि विद्रोही चाहे मेरठ में हों, कानपुर में या झाँसी में, उनकी पहली प्रतिक्रिया दिल्ली जाने की ही होती थी |


दिल्ली का पतन:-


20 सितंबर 1857 को  सबसे पहले दिल्ली का पतन हुआ। मुगल सम्राट बहादुर शाह ज़फ़र ने तीन अन्य राजकुमारों सहित १८५७ के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हुमायूँ के मकबरे में शरण ली| हुमायूँ के मकबरे में शरण लिए हुए बहादुरशाह को एक लंबी और घमासान लड़ाई के बाद ब्रिटिश सेना के कप्तान हॉडसन ने उन्हें उनके बेटे मिर्जा मुगल और खिजर सुल्तान व पोते अबू बकर के साथ गिरफ्तार किया था| उन पर मुकदमा चलाया गया और फिर बर्मा भेज दिया गया |और फिर उन्हें रंगून में मृत्युपर्यन्त कैद कर दिया गया था। चूँकि दिल्ली ही विद्रोहियो की एकमात्र आशा थी, इसलिए उस पर अंग्रेज़ों का कब्जा होते ही  1957 के विद्रोह की रीढ़ टूट गई।

  दिल्ली से खुद के विदा होने को बहादुर शाह ज़फ़र ने इन शब्दों में बांधा है-

    जलाया यार ने ऐसा कि हम वतन से चले

बतौर शमा के रोते इस अंजुमन से चले…"--बहादुर शाह ज़फ़र


रंगून में 1862 ई. में उसकी मृत्यु हो गई इसकी मृत्यु के साथ ही भारत में मुगल साम्राज्य का पूर्णरूपेण अंत हो गया.

  




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