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मराठा पेशवा बाजीराव प्रथम

 

मराठा पेशवा बाजीराव प्रथम (1720-1740 ई०)


बालाजी विश्वनाथ की मृत्यु के बाद 1720 में शाहू ने उनके पुत्र बाजीराव प्रथम की पेशवा नियुक्त किया और इस प्रकार बालाजी विश्वनाम के परिवार में पेशवा पद पैतृक (वंशानुगत) हो गया।

मुगल साम्राज्य के प्रति अपनी नीति की घोषणा करते हुए बाजीराव प्रथम ने मुगल साम्राज्य के प्रति अपनी नीति की घोषणा करते हुए , कहा "अब समय आ गया है कि हम विदेशियों को भारत से निकाल दें और हिन्दुओं के लिए अमर कीर्ति प्राप्त कर ले। आओ हम इस पुराने वृक्ष के खोखले तने पर प्रहार करें, शाखएं तो स्वयं ही गिर जाएंगी। हमारे प्रयत्नों से मराठा पताका कृष्ण नदी से अटक तक फहराने लगेगी।"इस नीति का अनुसरण करते हुए उन्होंने मुगल साम्राज्य के शक्ति केन्द्रों पर एक के बाद एक अनेक आक्रमण किए जिनके परिणामस्वरूप मराठे भारत की सर्वोच्च या महानतम शक्ति बन गए।


इस पोस्ट में:-

  • बाजीराव प्रथम (1720-1740 ई०)
  • निज़ाम से सम्बन्ध
  • जंजीरा के सिद्दियों पर अभियान
  • बुन्देलखण्ड की विजय-
  • गुजरात  विजय
  • दिल्ली पर आक्रमण 
  • भोपाल का युद्ध व मालवा विजय
  • बेसीन की विजय
  • बाजीराव प्रथम के बारे में कुछ तथ्य
  • बाजीराव प्रथम का पेशवा काल




बाजीराव प्रथम (1720-1740 ई०)


  •  नाम-बाजीराव प्रथम

  • अन्य नाम-'बाजीराव बल्लाल' तथा 'थोरले बाजीराव'

  • जन्म-18 अगस्त, 1700 ई.

  • मृत्यु तिथि-28 अप्रॅल, 1740 ई.

  • पिता- बालाजी विश्वनाथ,

  • माता-राधाबाई

  • पत्नी-काशीबाई, मस्तानी

  • संतान-बालाजी बाजीराव, रघुनाथराव

  • पद-मराठा साम्राज्य का द्वितीय पेशवा

  • पूर्वाधिकारी-बालाजी विश्वनाथ

  • शासन काल-1720-1740 ई.


पेशवा बनते समय बाजीराव केवल 19 वर्ष के युवक थे लेकिन उसको सूझबूझ अद्भुत थी। उन्हें अपने पिता से कुटनीति तथा प्रशासन में  प्रशिक्षण प्राप्त हुआ था।उनके पिता ने बाजीराव के सन्मुख कार्य बहुत कठिन छोडा था । क्योंकि दक्षिण के निजाम उसके चौथ तथा सरदेशमुखी प्राप्त करने के अधिकार को चुनौती दे रहा था। स्वराज्य का एक बड़ा भाग जंजीरा के सिद्धियों के अधीन था। शिवाजी के वंशज कोल्हापुर के शम्भूजी, शाहू की सर्वोच्च सत्ता को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे तथा अन्य मराठा सरदार स्वायत्तता प्राप्त करना चाहते थे बाजीराव ने इन समस्याओं को सफलता से सुलझा लिया। उसने दक्कन में अपनी सर्वोच्चता पुनः स्थापित कर ली और उत्तर विजय की योजना बनाई। उसने मुग़ल सामान्य के भावी पतन से मराठों के लिए लाभ उठाने का निश्चय किया | चुंकि  बाजीराव प्रथम विस्तारवादी प्रवृत्ति का व्यक्ति था। उसने हिन्दू जाति की कीर्ति को विस्तृत करने के लिए 'हिन्दू पद पादशाही' के आदर्श को फैलाने का प्रयत्न किया। ताकि अन्य हिन्दू राज्य इस योजना में मुगलों के विरुद्ध इनका पक्ष लें और साथ दें।

उसके अधीन मराठा शक्ति अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच गई। उन्होंने मराठा साम्राज्य के विस्तार के लिए उत्तर दिशा में आगे बढ़ने की नीति का सूत्रपात किया  |


निज़ाम से सम्बन्ध-


बाजीराव प्रथम के महत्त्वाकांक्षी मनसूबों की पूर्ति में निजाम-उल-मुल्क एक बहुत बड़ी बाधा था ।आसफजाह निज़ामुलमुल्क जो 1713-15 और 1720-21 तक दक्कन का बाइसराय रह चुका था, 1724 में पुन: दक्कन में विराजमान हुआ प्रारम्भ में निज़ाम और शाहू ने परस्पर मैत्रीपूर्ण नीति अपनाई और निज़ाम-उल मुल्क ने मुगल दरबार में अपने प्रतिद्वंद्वियों के विरुद्ध मराठों से सक्रिय सहायता की याचना की। 

। वह स्वयं एक स्वायत्त राज्य बनाना चाहता था, अतः 23 जून, 1724 ई० में शूकरखेड़ा के युद्ध में मराठों की मदद से निजामुल मुल्क ने दक्कन के मुगल सूबेदार मुबारिज खां को परास्त करके दक्कन में अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्थापित की।

लेकिन बाद में वह बालाजी विश्वनाथ द्वारा मुगलों के साथ की गई दिल्ली की संधि (फरवरी. 1719) की शर्तों की अवहेलना करने लगा तथा  पेशवा और शाहू के मराठा शत्रुओं के साथ मिलकर षड्यंत्र करना भी प्रारम्भ कर दिया तथा मराठा सैनिकों में फूट डालने लगा ।


चूंकि वह मराठों से ईर्ष्या करता था।और वह  यह जानता था कि वह मराठों के देश में जीत नहीं सकता अतः उसने कोल्हापुर गुट को प्रोत्साहित कर मराठों के बीच फूट डलवाने की  कूटनीति अपनाई। जब 1725-26 में बाजीराव कर्नाटक गया हुआ था, तो उसने शम्भूजी की सैनिक सहायता की और शाहू को अपनी अधीनता स्वीकार कराने में लगभग सफलता प्राप्त की साथ ही निजामुल-मुल्क ने अपनी स्थिति मजबूत होने पर पुनः मराठों के खिलाफ कार्यवाही शुरू कर दी तथा चौथ देने से इन्कार कर दिया। परन्तु पेशवा ने  इस बिगडी परिस्थिति को संभाल लिया और 7 मार्च 1728 को पालखेड़ के  युद्ध में निजाम को पराजित किया।। युद्ध में पराजित होने पर निजामुल मुल्क सन्धि के लिए बाध्य हुआ। 6 मार्च 1728 ई० में दोनों के बीच मुंशी शिवगाँव की सन्धि हुई मुंगी |जिसके अनुसार निजाम ने शाहू को चौथ तथा सरदेशमुखी देना, शम्भूजी को सहायता न देना, विजित प्रदेश लौटाना तथा बन्दी छोड़ देना स्वीकार किया। निजाम की इस हार से दक्कन में मराठों की सवोच्चता स्थापित हो गई |इस सन्धि से शाहू को मराठों के एकमात्र नेता के रूप में मान्यता देने आदि सभी शर्ते मंजूर की गई किन्तु उसने शम्भा जी को शाहू को सौंपने से इन्कार कर दिया।

  शम्भू जी के षड्यंत्र असफल हो गए और अन्त में 1731 ई० डभोई के युद्ध में बाजीराव ने त्रियम्बकराव को पराजित कर सारे प्रतिद्वन्दियों का अन्त कर दिया। 1731 ई. में वार्ना की सन्धि द्वारा शम्भू द्वितीय ने शाहू की अधीनता स्वीकार कर ली। 

   सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि इससे सब लोग बाजराव की कूटनीति तथा सैनिक नेतृत्व का लोहा मान गए और उन्हें अपने स्वप्न साकार करने की प्रेरणा मिली।


 

जंजीरा के सिद्दियों पर अभियान


उन्होंने जंजीरा में सिद्दियों की शक्ति को भी छिन्न-भिन्न कर दिया बाजीराव ने 1733 ई० में जंजीरा के सिद्दियों के खिलाफ एक लम्बा शक्तिशाली अभियान आरम्भ किया और अन्ततोगत्वा उन्हें मुख्यभूमि से निकाल बाहर कर दिया।सिद्दी जो पहले निजामशाह तथा बाद में आदिलशाह राज्य में सैनिक अधिकारी थे, 1670 के बाद से मुगलों की सेवा में आ गये। ।




बुन्देलखण्ड की विजय-


बुन्देले राजपूतों का एक कुल थे। वे मालवा के पूर्व में यमुना तथा नर्मदा के बीच पहाड़ी प्रदेश में राज्य करते थे उन्होंने अकबर, जहांगीर तथा औरंगज़ेब का डट कर विरोध किया था बुन्देलखण्ड इलाहाबाद की सूबेदारी में था। जब मुहम्मद ख़ां बंगश इलाहाबाद का सूबेदार नियुक्त हुआ तो उन्होंने बुन्देलों को समाप्त करने की ठानी। उन्हें कुछ सफलता मिली और उन्होंने जैतपुर जीत लिया। बुन्देल नरेश छत्रसाल ने मराठा सेना की सहायता मांगी। 1728 में मराठों ने बुन्देलखण्ड के सभी विजित प्रदेश मुग़लों से वापिस छीन लिए। कृतज्ञ छत्रसाल ने पेशवा की शान में एक दरबार का आयोजन किया तथा काल्पी, सागर, झांसी तथा हृदयनगर पेशवा को निजी जागीर के रूप में भेंट किया।



गुजरात  विजय- 


1573 में अकबर की गुजरात विजय के पहले से ही गुजरात भारत तथा पश्चिम एशिया तथा पूर्वी अफ्रीका के बीच व्यापार का प्रमुख केन्द्र बन गया था। 1705 में खाण्डेराव भाड़े बैतव  मराठी ने गुजरात पर एक धावा किया था। सैयद हुसैन अली और विश्वनाथ के बीच हुई बातचीत में गुजरात से भी चौथ प्राप्त करने का अधिकार मांगा था परन्तु वे असफल रहे थे इसके पश्चात मराठों ने गुजरात पर अनेक अभियान किए तथा कई जिलों से चौथ ली। मुग़ल शासन लुप्तप्राय हो गया था। 1730 के मार्च माध में मुग़ल सूबेदार सरबुलन्द खां ने बाजीराव के छोटे भाई चिमनाजी के साथ सन्धि की. जिसमें मराठों का चौथ तथा सरदेशमुखी प्राप्त करने का अधिकार स्वीकार कर लिया गया था परन्तु मुगल अधिकार की अन्तिम कडी1753  तक नहीं टूटी।


 

दिल्ली पर आक्रमण 


उत्तरी बुन्देलखण्ड पर आक्रमणों में मल्हारराव होल्कर के अधीन  यमुना नदी पार कर अवध पर आक्रमण कर दिया। सआदत ख़ां की बहुसंख्यक. घुड़सवार सेना के कारण उन्हें लौटना पड़ा। सआदत खां ने इसका एक अत्यन्त अतिशयोक्ति पूर्ण विवरण मुगल सम्राट को भेज दिया। पेशवा ने सम्राट को मराठा शक्ति की एक झलक दिखाने के लिए दिल्ली पर आक्रमण कर दिया। केवल 500 सवारों के साथ, जाटों तथा मेवातियों के प्रदेश को विद्युत गति से लांघता हुआ, बाजीराव दिल्ली पहुंचा (29 मार्च, 1737)। मुग़ल सम्राट ने दिल्ली से भागने की तैयारी कर ली। बाजीराव दिल्ली केवल 3 दिन ठहरा |परन्तु सआदत खाँ और सम्राट के खोखलेपन का स्पष्ट प्रदर्शन हो गया।


भोपाल का युद्ध व मालवा विजय-


अब जब मुग़ल सम्राट मराठों को अतिरिक्त रियायतें देने की सोच रहा था, तो निज़ाम जो पहले ही मराठों की सैनिक शक्ति, चौथ इत्यादि प्राप्त करने से दुःखी था, ने सम्राट को उबारने का प्रयत्न किया। 1737 ई० में मुगल बादशाह ने निजाम को मराठों के विरुद्ध भेजा। परन्तु इस बार भी बाजीराव उससे अधिक योग्य सेनापति सिद्ध हुआ। उसने निजाम को भोपाल के पास युद्ध में पराजित किया। 

भोपाल युद्ध के परिणामस्वरूप 1738 ई० में दुरई-सराय की सन्धि करने पर बाध्य हुआ। इस सन्धि की शर्ते पूर्णतः मराठों के अनुकूल थी।निजाम ने पेशवा को सम्राट से मालवा दिलवाने का वचन दिया।

 मालवा उत्तर भारत तथा दक्कन को जोड़नी वाली एक कड़ी थी। दक्कन तथा गुजरात को जाने वाले व्यापार मार्ग यहां से गुज़रते थे। मराठों ने महाराष्ट्र में मुग़लों के आक्रमणों के प्रतिकार के रूप में मालवा पर 18वीं शताब्दी के आरम्भिक वर्षों में आक्रमण करने आरम्भ कर दिए थे। बालाजी विश्वनाथ ने 1719 में मालवा से चौथ इत्यादि प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त करने का असफल प्रयत्न किया था। जो कूटनीति तथा बातचीत द्वारा प्राप्त नहीं हो सका वह बाजीराव ने बाहुबल से प्राप्त करने का प्रयत्न किया। ऊदाजी पवार तथा मल्हारराव होल्कर ने आक्रमणों से मुग़ल सत्ता की जड़ें उखाड़ डालीं। सवाई जयसिंह, मुहम्मद खां बंगया तथा जयसिंह जैसे मुग़ल सूबेदार मराठों के आक्रमणों को रोकने में असफल रहे और 1735 में पेशवा स्वयं उत्तर की ओर बढ़े। मालवा पर मुगलों की सत्ता लुप्तप्राय हो गई थी। और फिर 1738 मेंभोपाल का युद्ध के परिणामस्वरुप हुई दुरई-सराय की सन्धि में चम्बल तथा नर्मदा के बीच के प्रदेशों पर पूर्ण मराठा अधिकार स्वीकार किया जिसकी पुष्टि सम्राट से होनी थी तथा 50 लाख रुपया युद्ध की क्षति पूर्ति के लिए भी दिया। इस प्रकार मराठों को सम्पूर्ण मालवा का प्रदेश मिला, निज़ाम को पूर्णरूपेण नीचा देखना पड़ा तथा मराठा शक्ति की सर्वोच्चता स्वीकार करवा ली गई। मुख्य बात यह कि उत्तर में मराठा शक्ति का उदय हुआ।इस पराजय के बाद निजाम और पेशवा के मध्य हुई दुराइ-सराय की सन्धि की शर्तों (जनवरी 1738) के अंतर्गत निज़ाम द्वारा संपूर्ण मालवा के साथ-साथ चम्बल और नर्मदा नदियों के बीच के प्रदेशों की संपूर्ण प्रभुसत्ता पेशवा को समर्पित करनी पड़ी और निज़ाम पचास लाख रुपए युद्ध के हज़ने के रूप में भी प्रदान करने के लिए सहमत हुआ। "भोपाल की विजय पेशवा के विजेता जीवन का चरमोत्कर्ष था ।"



बेसीन की विजय


पुर्तगालियों की उत्तरी क्षेत्र की राजधानी बेसीन तथा दक्षिणी क्षेत्र की राजधानी गोआ थी।पुर्तगालियों की धार्मिक कट्टरता, बलात् धर्म परिवर्तन, लूटपाट तथा अत्याचारों के कारण तटवर्ती मराठा समुदाय में उनके प्रति घृणा की भावना आ गई थी। उनके द्वारा सभी जहाजों को परमिट लेने व अपने क्षेत्र के बन्दरगाहों में शुल्क चुकाने के लिए बाध्य किया जाता था। 1739 ई० में बेसीन की विजय बाजीराव की महान सैन्य कुशलता एवं सूझबूझ का प्रतीक थी। इस युद्ध में बाजीराव ने पुर्तगालियों से सालसीट तथा बेसीन छीन ली। बसीन का पतन उत्तर कोंकण में पुर्तगालियों के शासन की समाप्ति का सूचक था । यूरोपीय शक्ति के विरुद्ध यह मराठों की महानतम विजय थी।


बाजीराव प्रथम के बारे में कुछ तथ्य:-


  • बाजीराव एक कर्मठ व्यक्ति ,महान योद्धा, राजनीतिज्ञ, राजमर्मज्ञ तथा राज्य निर्माता थे।

  • वह, गौर वर्ण के मुखाकृति अति रूप वान  व रोबीले व्यक्ति थे|

  • बाजीराव अक्खड़ था। उसमें वह माधुर्य नहीं था जिसके लिए उसके वंशज विख्यात थे 

  • उनका पेशवा काल के बीस वर्षों तक  का रहा |

  • बाजीराव ने बृहद महाराष्ट्र की नींव डाली।

  • बाजीराव प्रथम को लड़ाकू पेशवा के रूप में स्मरण किया जाता है (सैनिक पेशवा तथा शक्ति के अवतार के रूप में)|

  •  वह शिवाजी के बाद गुरिल्ला युद्ध का सबसे बड़ा प्रतिपादक था।

  •  उनकी गुणपारखी क्षमता के कारण ही उन्होंने सिंधिया, होल्कर, पंवार, रेत्रेकर,फड़क जैसे नेताओं को खोज निकाला।और एक बार वह अपना चयन कर लेते थे और फिर उस पर पूर्ण विश्वास रखते थे।

  • वह तोपखाने के क्षेत्र में मराठों की कमज़़ोरी को जानते थे और इसीलिए वह शत्रु के सन्मुख आकर युद्ध कम करते थे। प्राय: शत्रु की रसद तथा सम्भरण काट कर उसे झुकाते |पालखेड़ा तथा भोपाल में उन्होंने इसी नीति को अपनाया।

  • गतिशीलता तथा तीव्रगति उसकी सेना की प्रमुख विशेषता थी । 1737 में दिल्ली पर हल्ला एक आश्चर्यजनक घटना थी।

  • बाजीराव प्रथम ने हिन्दू पादशाही का आदर्श रखा।

  • उन्होंने मराठा साम्राज्य के विस्तार के लिए उत्तर दिशा में आगे बढ़ने की नीति का सूत्रपात किया। 

  •  शाहू ने बाजीराव प्रथम को योग्य पिता का योग्य पुत्र कहा है। 


बाजीराव प्रथम का पेशवा काल


 


अपने दो दशकों के लम्बे संघर्ष और जुझारू जीवन में उन्होंने मालवा, बुन्देलखण्ड, बसीन तथा गुजरात पर विजय पाई तथा 1737 में वे दिल्ली तक पहुँच गए । उन्होंने पूना (पुणे) को अपनी गतिविधियों का केन्द्र बनाया जो जल्द पेशवाओं की राजधानी बन गया । मराठा राज्य संघ के प्रति उनका व्यवहार कठोर तथा शासनात्मक था और वे चाहते थे कि राज्यसंघ के सदस्य राज्य पेशवा के नियंत्रण में रहें और निर्देश मानें । इसका परिणाम यह हुआ कि राज्य संघ के सदस्यों में पेशवा के विरुद्ध असन्तोष व्याप्त हो गया । इसमें कोई सन्देह नहीं कि शिवाजी के बाद वे मराठों के महानतम् नेता थे किन्तु उत्तर की ओर उनकी विस्तारवादी नीति के कारण ही पानीपत के तृतीय युद्ध में मराठों को भयंकर पराजय का सामना करना पड़ा । 

बाजीराव के  पेशवा काल में ही क्षेत्रीय मराठा राजवंशों का उदय हो चुका था। 1732 ई० में बाजीराव ने एक इकरारनामा तैयार किया जिसमें होल्कर, सिन्धिया,आनन्दराव तथा तुकोजी पवार आदि के हिस्सों को व्याख्या की गई थी इसी समझौते ने मालवा में भावी चार मराठा रियासतों की आधारशिला रखी। इन क्षेत्रीय राजवंशों ने पेशवा के उत्तराधिकारियों के काल में महत्त्वपूर्ण भूमिका निवाही । इसी कालावधि में रानोजी सिन्धिया ने मालवा के सिन्धिया वंश की स्थापना की।व राजधानी प्रारम्भ में उज्जैन बनाई । मालवा के एक भाग का अधिकार मल्हार राव होल्कर ने इन्दौर के होल्कर राजवंश की स्थापना की। गायकवाड़ गुजरात में स्थापित होकर राजधानी बड़ौदा में बनाई । इसी तरह कोल्हापुर पर शिवाजी के परिवार की कनिष्ठ शाखा के लोगों का शासन था तथा नागपुर के भोंसले वंश ने मराठा नरेश शाहू के साथ सगोत्र सम्बन्ध होने का दावा किया ।


बाजीराव ने अपने विजय अभियानों के बल पर स्थापित मराठा साम्राज्य को प्रशासनिक व्यवस्था के द्वारा सुदृढ़ रूप नहीं दे पाए। सामन्तवाद की बढ़ती प्रवृत्ति को रोकने अथवा काबू में रखने का प्रयत्न करने की बजाय उन्होंने सिन्धिया और होल्कर जैसे मराठा सरदारों को अत्यधिक अधिकार देकर वस्तुतः इसे बढ़ावा ही दिया । इसके अलावा उन्होंने राज्य के वित्तीय व्यवस्था के लिए कोई समुचित व्यवस्था नहीं की |


अयोग्य प्रतिनिधियों तथा निष्क्रिय अधिकारियों को स्थायी रूप से जागीरें और भू-क्षेत्र आवंटित करने की उनकी नीति से आन्तरिक प्रशासन का आधार कमजोर पड़ गया और पेशवा इस प्रवृत्ति को रोक नहीं पाए । इन सब  कठिनाइयों के बाद भी बाजीराव ने अपनी कर्मठता से "तरुण मराठा साम्राज्य को स्थिरता प्रदान की और इसकी स्वाधीनता को सुरक्षित किया तथा राज्य के समक्ष विस्तार की व्यापक संभावनाएँ प्रस्तुत की।"





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